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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
___ छाया-भिक्षुञ्च खलु पृष्ट्वा वाऽपृष्ट्वा वा यः इमे आहृत्य ग्रन्थात् स्पृशन्ति स हंता, हत, क्षणुत; छिन्त, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत, सहसा कारयत विपरामृशत तान् स्पर्शान्धीरः स्पृष्टः अधिसहेत अथवा आचारगोचरमाचक्षीत, तर्कयित्वा अंनीदृश अथवा वाग्गुप्तिर्विधेया, गोचरस्यानुपूर्व्या सम्यक्प्रत्युपेक्षेत् आत्मगुप्तो बुद्धरेतत् प्रवेदितम्। ___ पदार्थ-च-यह समुच्चय अर्थ में है। खलु-यह वाक्यालंकार अर्थ में है। भिक्खु-भिक्षु को। पुट्ठा वा-पूछकर अथवा। अपुट्ठा वा-बिना पूछे। जे-जो। इमे-ये आहारादि पदार्थ। गंथा वा-बहुत धन खर्च करके बनाए हैं। आहच्च-वह उसके सामने लाकर देने पर जब मुनि उसे ग्रहण नहीं करता है, तब वह गृहस्थ मुनि को। फुसंति-कष्ट-परितापनादि देता है, यथा-। से-वह सम्पन्न गृहस्थ क्रोध के वशीभूत होकर साधु को। हन्ता-स्वयं मारता है तथा अन्य व्यक्तियों को मारने का आदेश देता है, वह कहता है। हणह-इस भिक्षु को मारो। खणह-पीड़ित करो। छिंदह-इसके हाथादि अंगोपांगो का छेदन करो। दहह-इसे आग में जला दो। पयह-इसके मांस को पकाओ। आलुपह-इसके वस्त्र छीन लो। विलुपह-इसका सब कुछ छीन लो। सहसाकारेह-इसको जल्दी मारो, जिससे इसकी मृत्यु हो जाए। विप्परामुसह-इसे अनेक तरह से पीड़ित करो। ते फासे-उन दुःख रूप स्पर्शों से। पुट्ठो-स्पृष्ट हुआ। धीरो-वह धैर्यवान साधु। अहियासए-उन्हें सहन करे। अदुवाअथवा। आयारगोयरमाइक्खे-उनसे साधु के आचारानुष्ठान को कहे । तक्कियापरन्तु साध्वाचार बताने के पूर्व यह सोच ले कि यह पुरुष माध्यस्थ वृत्ति वाला है, तो उसे। णं-वाक्यालंकार में है। अणेलिसं-अनुपम वचन कहे। यदि वह पुरुष दुराग्रही हो या अपनी आत्मा में उसे समझाने की शक्ति न हो। अदुवा-अथवा। वइगुत्तीए-तब वह वचन गुप्ति में स्थित रहे। गोयरस्स-आचार-गोचर की। अणुपुव्वेण-अनुक्रम से। सम्म-सम्यक् शुद्धि का। पडिलेहए-प्रतिलेखन करके। आयगुत्ते-आत्मा से गुप्त होता हुआ निरंतर संयम-साधना में संलग्न रहे। बुद्धेहिंबुद्धों-तीर्थंकरों ने। एयं-इसका। पवेइयं-प्रतिपादन किया है। __ मूलार्थ-कोई सद्गृहस्थ, साधु को पूछकर या बिना पूछे ही बहुत-सा धन खर्चकर अन्नादि पदार्थ बना करके साधु के पास लाकर उसे ग्रहण करने की प्रार्थना