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________________ 727 अष्टम अध्ययन, उद्देशक 2 करता है। परन्तु, जब साधु उसे अकल्पनीय समझकर लेने से इनकार करता है, तब क्रोध के वशीभूत होकर वह गृहस्थ साधु को परिताप देता है, उसे मारता है तथा दूसरों से कहता है कि इस भिक्षु को मारो, इसका विनाश करो, इसके हाथ-पैर काट लो, इसको अग्नि में जला दो, इसके मांस को काट कर पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो, इसका सब कुछ लूट लो और इसे नाना प्रकार से पीड़ित करो, जिससे इसकी जल्दी ही मृत्यु हो जाए । इत्यादि कठोर परीषहों - कष्टों के उपस्थित होने पर भी साधु उन कष्टों को बड़े धैर्य से सहन करे । यदि वे समझने योग्य हैं, तो वह उन्हें साध्वाचार का यथार्थ स्वरूप समझा कर शान्त करे। यदि वे अयोग्य व्यक्ति हैं, तो वह वचन - गुप्ति का पालन करे - मौन रहे । वह अनुक्रम से अपने आचार का सम्यक् प्रतिलेखन करके आत्मा से गुप्त होता हुआ सदा उपयोग पूर्वक क्रियानुष्ठान में संलग्न रहे । तीर्थंकरों ने इस विषय का इस प्रकार से प्रतिपादन किया है। हिन्दी - विवेचन साधना का महत्त्व सहिष्णुता में है । अतः कठिनाई के समय भी साधु को समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम का परिपालन करना चाहिए । परन्तु, परीषों के उपस्थित होने पर उसे संयम से भागना नहीं चाहिए। साधना की कसौटी परीषहों के समय ही होती है । यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि साधु को खाने-पीने के पदार्थों एवं वस्त्र - पात्र आदि के प्रलोभन में आकर अपने संयम मार्ग का .त्याग नहीं करना चाहिए, परन्तु ऐसे समय में भी समस्त प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध संयम का पालन करना चाहिए । यदि कोई व्यक्ति स्वादिष्ट पकवान बनाकर या सुन्दर कीमती वस्त्र - पात्र ला कर दे और उसे ग्रहण करने के लिए अत्यधिक आग्रह भी करे, तब भी साधु उन्हें स्वीकार न करे । वह उसे स्पष्ट शब्दों में समझाए कि इस तरह का आहार आदि लेना हमें नहीं कल्पता है। यदि इसपर भी वह गृहस्थ न माने, क्योंकि कई पूंजीपति गृहस्थों को अपने वैभव का अभिमान होता है । वे चाहते हैं कि हमारे विचारों को कोई ठुकराए नहीं। जिन्हें वे अपना गुरु मानते हैं, उनके प्रति भी उनकी यह भावना रहती है कि वे भी मेरे विचारों को स्वीकार करे, मेरे द्वारा दिए जाने वाले पदार्थों या विचारों को अस्वीकार न करें। इस पर भी यदि कोई साधु अकल्पनीय वस्तु को स्वीकार नहीं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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