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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 2 725 मूलार्थ-वह भिक्षु श्मशानादि स्थानों में ध्यानादि साधना में पराक्रम करता हो या अन्य कारण से इन स्थानों में विचरता हो, उस समय यदि कोई गृहस्थ भिक्षु के पास आकर अपने मानसिक भावों को व्यक्त न करता हुआ, साधु को दान देने के लिए अन्न, वस्त्रादि लाकर या उसके निवास के लिए सुन्दर स्थान बनवाकर उसे देना चाहता है, तब आहारादि की गवेषणा के लिए गया हुआ भिक्षु अपनी स्व बुद्धि से अथवा तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी अन्य परिजन आदि से उन पदार्थों के सम्बन्ध में सुनकर, यदि वह यह जान ले कि वस्तुतः यह गृहस्थ मेरे उद्देश्य से बनाए या खरीद कर लाए हुए आहार, वस्त्र और मकान आदि मुझे दे रहा है, तो वह भिक्षु उस गृहस्थ से कहे कि ये पदार्थ मेरे सेवन करने योग्य नहीं हैं। अतः मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन पूर्व सूत्र में उल्लिखित विषय को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई श्रद्धानिष्ठ भक्त मुनि को बिना बताए ही उसके निमित्त आहारादि बनाकर या वस्त्र-पात्र आदि खरीद कर रख ले और आहार के समय मुनि को उसके लिए आमन्त्रण करे। उस समय आहार आदि की गवेषणा करते हुए मुनि को अपनी बुद्धि से या तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी के कहने से यह ज्ञात हो जाए कि यह आहारादि मेरे लिए तैयार किया गया है या खरीदा गया है, तो वह उसे स्वीकार न करे। वह उस गृहस्थ को स्पष्ट शब्दों में कह दे कि इस तरह हमारे लिए बनाया हुआ या खरीदा हुआ आहारादि हम नहीं लेते हैं। वह उसे साध्वाचार का सही बोध कराए, जिससे वह फिर कभी किसी भी तरह का सदोष आहारादि देने का प्रयत्न न करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-भिक्खुं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हन्ता हणह, खणह, छिंदह, दहह, पयह आलुम्पह विलुम्पह सहसाकारेह विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तक्किया णमणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहए आयगुत्ते बुद्धेहिं एवं पवेइय॥2010
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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