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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
श्रेष्ठ है कि पाप कर्म का त्याग करना ही सर्ववादि सम्मत सिद्धान्त है। अतः मैंने उस पापकर्म का त्याग कर दिया है। चाहे मैं ग्राम में रहूं या जंगल में रहूं, परन्तु पाप कर्म नहीं करना यह मेरा विवेक है। वस्तुतः धर्म न ग्राम में है और न जंगल में है, वह तो विवेक में है। अतः तुम परम मेधावी सर्वज्ञ कथित धर्म को जानो। भगवान ने तीन याम का वर्णन किया है। जिनमें ये आर्य लोग सम्बोध को प्राप्त होते हुए धर्म कार्य में उद्यत हो रहे हैं और वे कषायों का परित्याग करके शान्त होते हैं। मुमुक्षु पुरुष पापकर्मों में निदान से रहित होते हैं, अतः वे ही मोक्ष मार्ग के योग्य कहे गए हैं। हिन्दी-विवेचन __यह हम देख चुके हैं कि स्याद्वाद की भाषा में संशय को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता है। अतः स्याद्वाद की भाषा में व्यक्त किया गया सिद्धान्त ही सत्य है। यह सिद्धान्त राग-द्वेष विजेता सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा प्ररूपित है। इसलिए इसमें परस्पर विरोधी बातें नहीं मिलती हैं और यह समस्त प्राणियों के लिए हितकर भी है। वीतराग भगवान के वचनों में यह विशेषता है कि वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं, परन्तु किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार नहीं करते। उनके उपासक मुनि भी वाद-विवाद के समय असत्य तर्कों का खण्डन कर के सत्य सिद्धांत को बताते हैं, परन्तु यदि कहीं वाद-विवाद में संघर्ष की सम्भावना हो या वितण्डावाद उत्पन्न होता हो तो वे उसमें भाग नहीं लेते। वे स्पष्ट कह देते हैं कि यदि तुम्हारे मन में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को समझने की जिज्ञासा हो तो शान्ति से तर्क-वितर्क के द्वारा हम चर्चा कर सकते हैं और तुम्हारे संशय का निराकरण कर सकते हैं परन्तु हम इस वितण्डावाद में भाग नहीं लेंगे। क्योंकि हम सावद्य प्रवृत्ति का त्याग कर चुके हैं और इसमें सावद्य प्रवृत्ति होती है। इसलिए हम इस चर्चा से दूर ही रहेंगे।
कुछ लोग कहते हैं कि हम जंगलों में रहते हैं, कन्द-मूल खाते हैं, इसलिए हम धर्म-निष्ठ हैं। इस विषय में सूत्रकार कहते हैं कि धर्म ग्राम या जंगल में नहीं है और न वह कन्द-मूल खाने में ही है। धर्म विवेक में है, जीवाजीव आदि पदार्थों का यथार्थ बोध करके शुद्ध आचार का पालन करने में है। प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की रक्षा करने में है।
भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान में .