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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 1 कहा है-प्रथम, मध्यम और अन्तिम तीन याम-जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। इन तीनों यामों में जीवन सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्म को पा सकता है, श्रद्धानिष्ठ बन सकता है, त्याग, व्रत एवं प्रव्रज्या-दीक्षा को स्वीकार कर सकता है। आगम में दीक्षा के लिए जघन्य आठ वर्ष की आयु बताई है, अर्थात् आठ वर्ष की आयु में मनुष्य संयम-साधना के योग्य बन जाता है। इसी दृष्टि को सामने रखकर कहा गया है कि भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। भगवान का उपदेश किसी भी देश-काल विशेष से आबद्ध नहीं है, वह तो पाप से निवृत्त होने में है। वैदिक परम्परा में सन्न्यास के लिए अन्तिम अवस्था निश्चित की गई है और अरण्यवासी सन्न्यासी होता है। परन्तु, भगवान ने त्याग-भावना को किसी काल-अवस्था या देश से बांध कर नहीं रखा, क्योंकि मन में त्याग की जो उदात्त भावना आज उबुद्ध हुई है, वह अन्तिम अवस्था में रहेगी या नहीं? यदि त्याग की भावना बनी भी रही, तब भी क्या पता तब तक जीवन रहेगा या बीच में ही मानव आगे के लिए चल पड़ेगा। अतः भगवान महावीर ने कहा है कि जब मन में त्याग की भावना जगे, उसी समय उसे साकार रूप दे दो। काल का कोई विश्वास नहीं है कि वह मनुष्य को कब आ कर दबोच ले, अतः शुभ कार्य में समय मात्र भी प्रमाद मत करो। किसी भी काल एवं देश की प्रतीक्षा मत करो। जिस देश और जिस काल-भले ही बाल्यकाल हो, यौवनकाल हो या वृद्ध काल हो, में स्थित हो उसी काल में त्याग के पथ पर बढ़ चलो। वस्तुतः, धर्म सभी काल में साधा जा सकता है। धर्म के लिए काल आवश्यक नहीं है, आवश्यक है पाप से, हिंसा आदि दोषों से, विषय-कषाय से निवृत्त होना। अतः जिस समय मनुष्य पाप कार्य से निवृत्त होता है, तभी से वह धर्म की साधना कर सकता है।
इसके अतिरिक्त आचार्य शीलांक ने याम शब्द का व्रत अर्थ किया है और प्राणातिपात, मृषावाद एवं परिग्रह के त्याग को तीन याम कहा है और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को भी तीन याम बताया है। त्रियाम का तीन व्रत के रूप में उल्लेख अपेक्षा विशेष से किया गया है। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासन में पांच
1. चूर्णिकार ने भी याम शब्द का अवस्था अर्थ किया है और 8 से 30 वर्ष की आयु को प्रथम याम, 30 से 60 वर्ष की आयु को मध्यम याम और उसके बाद की आयु को
अन्तिम याम बताया है। 2. समयं गोयम! मा पमायए।
-उत्तराध्ययन, 10