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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 1 1 711 लोक अध्रुव है, लोक सादि है, लोक अनादि है, लोक सपर्यवसित-सान्त है, लोक अपर्यवसित-अनन्त है, सुकृत है, दुष्कृत है, कल्याण है, पाप है, पुण्य है, साधु है, असाधु है, सिद्धि है, असिद्धि है, नरक है, नरक नहीं है, इन सब बातों को स्पष्टतया नहीं जानते हैं। कोई इनमें से किसी एक का प्रतिपादन करता है, तो दूसरा उसका निषेध करके अन्य का समर्थन करता है। जैसे वेदान्त दर्शन लोक को एकान्त ध्रुव मानता है, तो बौद्ध दर्शन इसे एकान्त अध्रुव' मानता है। इसी प्रकार अन्य दार्शनिक भी किसी एक तत्त्व का प्रतिपादन करके दूसरे का निषेध करते हैं। क्योंकि, उन्हें • वस्तु के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होने से उनके विचारों में स्पष्टता एवं एकरूपता नजर नहीं आती है। जैसे वेदों में विराट् पुरुष द्वारा सृष्टि का उत्पन्न होना माना है। मनुस्मृति आदि में लिखा है कि सृष्टि का निर्माण अण्डे से हुआ है। पुराणों में विष्णु की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ और उससे सृष्टि का सृजन हुआ, ऐसा उल्लेख किया गया है। स्वामी दयानन्द जी की कल्पना इससे भिन्न एवं विचित्र है। वे माता-पिता के संयोग के बिना ही अनेक युवक स्त्री-पुरुषों का उत्पन्न होना मानते हैं। ईसाई और.यवंन विचारकों की सष्टि के सम्बन्ध में इनसे भी भिन्न कल्पना है। गॉड (ईश्वर) या खुदा ने कहा कि सृष्टि उत्पन्न हो जाए और एकदम सारा संसार जीवों से भर गया। इस प्रकार अन्य तत्त्वों के विषय में भी सबकी भिन्न-भिन्न कल्पना है। इसलिए कोई विचारक एक निश्चय पर नहीं पहुंच सकता है। उसके मन में भ्रान्ति हो जाती है। इसलिए आगम में कहा गया है कि अपने से असम्बद्ध विचारकों के साथ परिचय नहीं रखना चाहिए। क्योंकि, इससे श्रद्धा-निष्ठा में गिरावट आने की सम्भावना है। उपर्युक्त तत्त्वों के सम्बन्ध में जैनों का चिन्तन स्पष्ट है। संसार के समस्त पदार्थ अनेक धर्म वाले हैं, अतः उनका एकान्त रूप से एक ही स्वरूप नहीं होता है। जैसे लोक नित्य भी है और अनित्य भी है, सादि भी है और अनादि भी है। वह सान्त 1. 'अध्रुवः' चलः, तथाहि...भूगोलः केषाञ्चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित • एव। -आचाराङ्ग टीका, पृष्ठ, 256 टीका के इस पाठ से यह परिज्ञात होता है कि आजकल के वैज्ञानिकों की तरह पहले भी इस तरह के लोग थे, जो यह मानते थे कि भूमि चलती है और सूर्य नहीं चलता है-स्थिर है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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