SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 799
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 710 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध वध करवाते हैं और वध करने वालों का अनुमोदन भी करते हैं। वे अदत्तादान का ग्रहण करते हैं और अनेक तरह के विरुद्ध वचनों के द्वारा एकांत पक्ष की स्थापना करते हैं। जैसे कि कुछ व्यक्ति कहते हैं कि लोक है, तो कुछ कहते हैं कि लोक नहीं है। कोई कहता है कि यह लोंक ध्रुव-शाश्वत है, तो कोई कहता है कि यह लोक अध्रुव-अशाश्वत है। कोई कहता है कि लोक सादि है, तो कोई कहता है कि लोक अनादि है। कोई कहता है कि लोक सान्त है, तो कोई कहता है कि लोक अनन्त है। कोई कहता है कि इसने दीक्षा ली यह अच्छा काम किया, तो कोई कहता है कि इसने यह अच्छा नहीं किया है। कोई कहता है, धर्म कल्याण रूप है तो कोई कहता है कि यह पाप रूप है। कोई कहता है कि यह साध है, तो कोई कहता है कि यह असाधु है। कोई कहता है कि सिद्धि है, तो कोई कहता है कि सिद्धि का अस्तित्व ही नहीं है। कोई कहता है कि नरक है, तो कोई कहता है नरक का सर्वथा अभाव है। इस प्रकार ये विभिन्न विचारक एकान्ततः अपने-अपने मत की स्थापना करते हैं। ये अन्य धर्मावलम्बी विविध प्रकार के विरुद्ध वचनों से धर्म की प्ररूपणा करते हैं। अतः भगवान कहते हैं कि हे शिष्यो! इन विभिन्न धर्मावलम्बियों के द्वारा कथित धर्म का स्वरूप अहेतुक होने से प्रामाणिक नहीं है और उनमें एकांत पक्ष का अवलम्बन होने से वह यथार्थ भी नहीं है। अतः तुम्हें यह समझना चाहिए कि वह आदरणीय भी नहीं है। हिन्दी-विवेचन पूर्व सूत्र में अपने से असम्बद्ध अन्य मत के भिक्षुओं के साथ परिचय बढ़ाने का जो निषेध किया है, उसका कारण यह है कि वे धर्म से परिचित नहीं हैं। उनका आचार-विचार साधुत्व के योग्य नहीं है। वे हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों से मुक्त नहीं हुए हैं। वे स्वयं हिंसा आदि दोषों का सेवन करते हैं, अन्य व्यक्तियों से दोषों का सेवन करवाते हैं और दोषों का सेवन करने वाले व्यक्तियों का समर्थन भी करते हैं। इसी तरह वे भोजनादि स्वयं बना लेते हैं या अपने लिए बनवा लेते हैं। इसी प्रकार वे अग्नि, पानी आदि का आरम्भ-समारम्भ भी करते-करवाते हैं। वे किसी भी प्रकार के दोष से निवृत्त नहीं हुए हैं। दूसरे उन्हें तत्त्व का भी बोध नहीं है। वे लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रुव है, .
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy