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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध तिरस्कार की भावना नहीं है। केवल संयम की सुरक्षा एवं आचार-शुद्धि के लिए साधक को यह आदेश दिया गया है कि वह रत्नत्रय से सम्पन्न मुनि के साथ ही आहार-पानी आदि का सम्बन्ध रखे और उसकी ही सेवा-शुश्रूषा करे।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुञ्छणं वा लभिया, नो लभिया, भुजिया, नो भुजिया पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्म जोसेमाणे, समेमाणे, चलेमाणे, पाइज्जा वा, निमंतिज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं, परं अणाढायमाणे तिबेमि॥195॥. ..
छाया-ध्रुवं चैतन्जानीयात्, अशनं वा यावत् पादप्रोञ्छनं वा लब्ध्वा, नो लब्ध्वा, भुक्त्वा, नो भुक्त्वा, पंथानं व्यावर्त्य व्युत्क्रम्य विभक्तं धर्म जुषन् समागच्छन् चलनः (गच्छन्) प्रदद्याद्वा वा निमन्त्रयोर्दा कुयद् वैयावृत्यं परमनाद्रियमाणः इति ब्रवीमि।
पदार्थ-बौद्धादि भिक्षु-जैन भिक्षु के प्रति कहते हैं कि हे भिक्षु! धुवं-ध्रुव निश्चय। च-पुनः। इयं-यह। जाणिज्जा-जान। असणं-अशन-अन्न अथवा। जाव-यावत्। पायपुञ्छणं-पादपुंछन-रजोहरण आदि। वा-परस्पर अपेक्षार्थक है। लभिया-प्राप्त कर के। नोलभिया-प्राप्त नहीं करके। भुंजिया-भोगकर-खाकर। न भुंजिया-बिना खाए ही। पंथं विउता-मार्ग का उपक्रम या। विउक्कम्म-व्युत्क्रम करके भी हमारे मठ में आ जाना। विभत्तंधम्म-भिन्न धर्म को। जोसेमाणे-सेवन करता हुआ। समेमाणे-उपाश्रय में आकर कहता हो या। चलेमाणे-चलते हुए के प्रति कहता हो या। पाइज्जा-अन्न आदि देता हो। वा-अथवा। निमंतिज्जा-निमंत्रण करे। वेयावडियं कुन्जा-वैयावृत्य करे। परंअणाढायमाणे-मुनि को अत्यन्त अनादरवान-अनादर युक्त होकर रहना चाहिए। यह दर्शन-शुद्धि का उपाय है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं।
मूलार्थ-यदि किसी जैन भिक्षु को कोई बौद्धादि भिक्षु ऐसा कहे कि तुम्हें निश्चित रूप से हमारे मठ में सब प्रकार के अन्नादि पदार्थ मिल सकते हैं। अतः हे भिक्षु! तू अन्न-पानी आदि को प्राप्त करके या इन्हें बिना प्राप्त किए, उन्हें खाकर