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________________ 704 . श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध ___ मूलार्थ-हे आर्य! पार्श्वस्थ मुनि या शिथिलाचारी जैन साधु के वेश में स्थित चारित्र से हीन, साधु या जैनेतर भिक्षुओं की विशेष आदरपूर्वक अन्न-पानी। खादिम-मिष्टान्नादि एवं स्वादिम-लवंगादि, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणं आदि न देवे, न निमन्त्रित करे और न उनकी वैयावृत्त्य ही करे। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन ___प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को किसके साथ सम्बन्ध रखना चाहिए। सम्बन्ध हमेशा अपने समान आचार-विचार वाले व्यक्ति के साथ रखा जाता है। इसी बात को यहां समनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। दर्शन एवं चारित्र से संपन्न साधु समनोज्ञ कहलाता है और इनसे रहित अमनोज्ञ। अतः साधु को दर्शन एवं चारित्र संपन्न मुनियों के साथ आहार आदि का सम्बन्ध रखना चाहिए, अन्य के साथ नहीं। इसके अतिरिक्त जो साधु दर्शन से सम्पन्न है और जैन मुनि के वेश में है, परन्तु चारित्र सम्पन्न नहीं है-शिथिलाचारी है या केवल वेश सम्पन्न है, परन्तु दर्शन एवं चारित्र निष्ठ नहीं है और जो साधु दर्शन, चारित्र एवं वेश से सम्पन्न नहीं है, अर्थात् जैनेतर सम्प्रदाय का भिक्षु है; तो उन्हें विशेष आदर सत्कार के साथ आहार-पानी, वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ नहीं देना चाहिए और न उनकी वैयावृत्य-सेवा ही करनी चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि विश्वबन्धुत्व का भाव रखने वाले जैन दर्शन में इतनी संकीर्णता क्यों? इसका समाधान यह है कि साधक का जीवन रत्नत्रय की विशुद्ध आराधना करने के लिए है। अतः उसे ऐसे साधकों के साथ ही सम्बन्ध रखना चाहिए, जो उसके स्तर के हैं। क्योंकि, उनके संपर्क एवं सहयोग से उसे अपनी साधना को आगे बढ़ाने में बल मिलेगा। परन्तु विपरीत दृष्टि रखने वाले एवं चारित्र से हीन व्यक्ति की संगति करने से उसके जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। पहले तो उसका अमूल्य समय-जो स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में लगना चाहिए, वह इधर-उधर की बातों में नष्ट होगा। उसकी ज्ञानसाधना में विघ्न पड़ेगा और दूसरे, बार-बार आचार एवं विचार के सम्बन्ध में विभिन्न तरह की विचारधाराएं सामने आने से उसका मन लड़खड़ाने लगेगा और परिणामस्वरूप उसके आचार एवं विचार में भी शिथिलता आने लगेगी। अतः साधक को शिथिलाचार वाले स्वलिंगी एवं दर्शन
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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