________________
702
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इन सब साधकों की मानसिक स्थिति को सामने रखकर सर्वसाधारण साधकों को इस अध्ययन के स्वाध्याय करने की आज्ञा नहीं दी गई थी। चूर्णिकार ने लिखा है कि बिना आज्ञा या अधिकार के महापरिज्ञा अध्ययन पढ़ा नहीं जाता था' । अधिकारी व्यक्ति, अर्थात् गीतार्थ-श्रुतसंपन्न मुनि ही इसका स्वाध्याय कर सकता था।
आचार्य शीलांक ने भी लिखा है कि महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन विच्छिन्न हो गया है। उसकी नियुक्ति भी नहीं मिलती है। जबकि नियुक्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन के विषय में अध्ययन के प्रारम्भ में लिखा है-“प्रस्तुत अध्ययन में मोहकर्म के कारण होने वाले विभिन्न परीषह एवं उपसर्गों का वर्णन था।"
इन सब विवरणों से यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत अध्ययन में अनेक मोहजन्य परीषहों एवं चमत्कारों का वर्णन था। मोहजन्य अनेक दोषों का उल्लेख प्रस्तुत अध्ययन में था। अतः इससे सामान्य साधकों के जीवन में शिथिलता आ जाने की संभावना थी और उनके द्वारा उक्त अध्ययन में वर्णित चमत्कारों का दुरुपयोग भी हो सकता था। इसी दृष्टि को सामने रखकर सर्वसाधारण के लिए उसके पढ़ने का. निषेध किया गया था। इस कारण उसका पठन-पाठन कम हो गया और बाद में वह विलुप्त हो गया हो। ____ यह भी कहा जाता है कि प्रस्तुत अध्ययन में चमत्कारों का अधिक उल्लेख होने के कारण उसका दुरुपयोग न किया जाए, इस दृष्टि से देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने प्रस्तुत अध्ययन को आचारांग से पृथक् कर दिया। कुछ भी कारण रहे हों, इतना तो स्पष्ट है कि साधना में दोष उत्पन्न करने वाले यन्त्र-मन्त्र का दुरुपयोग न हो, इसलिए उसके पठन-पाठन पर प्रतिबन्ध लगाया गया और परिणामस्वरूप वह अध्ययन आज हमारे सामने नहीं रहा। कुछ भी हो, प्रस्तुत अध्ययन का न रहना बहुत बड़ी कमी है। इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है?
॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥
1. महापरिण्णा पढिज्जइ असमणुण्णाया। 2. मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा...।
-आचारांग चूर्णि -आचारांग नियुक्ति