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सप्तम अध्ययन : महापरिज्ञा
स्पष्टीकरण
षष्ठ अध्ययन में कर्मों की निर्जरा के संबन्ध में उल्लेख किया गया है । कर्मों की निर्जरा मोह एवं मोहजन्य साधनों से निवृत्त होने पर होती है । अतः प्रस्तुत अध्ययन •में विभिन्न मोहजन्य उपसर्ग एवं परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने की विधि बताई गई थी। मुमुक्षु पुरुष के लिए आदेश दिया गया था कि मोहजन्य स्थिति के उपस्थित होने पर या विषयेच्छा जागने पर वह किसी चमत्कार एवं यंत्र-मंत्र का प्रयोग करके मोह के प्रवाह में न बहे, अपितु उन परीषहों पर विजय प्राप्त करे । वह समस्त चमत्कारों एवं यंत्र-तंत्र से निर्लिप्त रहकर सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे ।
महापरिज्ञा शब्द का भी यही अर्थ है कि महा - विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोहजन्य दोषों को जानकर, प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करना । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि साधक मोहजन्य समस्त साधनों एवं आकांक्षाओं से मिलने वाले दुःखद परिणामों को जानकर उनका परित्याग करके केवल कर्मों की निर्जरा करने के लिए . तप, संयम, स्वाध्याय एवं आत्मचिन्तन में ही व्यस्त रहे ।
परन्तु, सभी साधकों का मानसिक स्तर एक जैसा दृढ़ नहीं होता है। आज ही नहीं, भगवान महावीर के समय एवं उसके पहले के साधकों की मानसिक धारा भी एक जैसी नहीं थी। सभी साधक गजसुकमाल की तरह कष्टसहिष्णु एवं स्थूलीभद्र की तरह मोह एवं कामविजेता नहीं थे । उनमें कुछ साधक कुण्डरीक एवं अरणक मुनि जैसे भी थे, जो मोह के प्रबल झोंकों से गिर भी सकते थे और योग्य निमित्त मिलने पर फिर से सजग भी हो जाते थे । इस से भगवान महावीर के बाद की स्थिति सहज ही समझ में आ जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियों के वैचारिक स्तर में विषमता-भिन्नता रहती है। कुछ साधक दृढ़ मनोबल वाले होते हैं, तो कुछ साधक निर्बल चिन्तन वाले भी होते हैं।