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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है। वह महान् पुरुष उसके स्वागत के लिए संलेखना आरम्भ कर देता है। वह यह साधना 12 वर्ष पूर्व प्रारम्भ कर देता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार साधक संलेखना के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ अपने आपको पंडितमरण प्राप्त करने के लिए तैयार कर लेता है और मृत्यु के समय बिना किसी घबराहट के वह पादोगमन, इंगितमरण या भक्तप्रत्याख्यान किसी भी संथारे-आमरण अनशन को स्वीकार करके आत्म-चिन्तन में संलग्न रहता है और जब तक आत्मा शरीर से पृथक् नहीं हो जाती, तब तक शान्त भाव से साधना में या यों कहिए कर्मों को क्षय करने में प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार मृत्यु से परास्त नहीं होने वाला साधक मृत्यु के मूल कारण जन्म या कर्मबन्ध को समाप्त करके जन्म-मरण पर विजय पा लेता है। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि जन्म का ही दूसरा नाम मृत्यु है। जन्म के दूसरे क्षण से ही मरण आरम्भ हो जाता है। अतः मृत्यु जन्म के साथ संबद्ध है, उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जन्म का अन्त होते ही मृत्यु का भी अन्त हो जाता है। अतः साधक मृत्यु का अन्त नहीं करता, अपितु पण्डितमरण के द्वारा जन्म का या जन्म के मूल कारण कर्म का उन्मूलन कर देता है और यही उसकी सबसे बड़ी विजय है। अतः साधक को निर्भय एवं निर्द्वन्द्व भाव से पण्डित-मरण को स्वीकार करके निष्कर्म बनने का प्रयत्न करना चाहिए। पण्डितमरण को प्राप्त करके सारे कर्मों से मुक्त होना ही उसकी साधना का उद्देश्य है। अतः मुमुक्षु पुरुष को मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए।
॥ पंचम उद्देशक समाप्त ॥
॥ षष्ठ अध्ययन समाप्त ॥
1. विशेष विवरण के लिए मेरे द्वारा लिखित उत्तराध्ययन सूत्र भाग 3, अध्ययन 36 गाथा ..
251-268 की व्याख्या देखें।