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________________ 699 षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 5 करता है, उसी तरह मुनि भी मृत्यु के आने पर फलग की तरह स्थिरचित्त रहकर पादोगमन आदि अनशन (संथारा) करके, जब तक आत्मा शरीर से पृथक् न हो, तब तक मृत्यु की आकांक्षा करता हुआ चिन्तन-मनन में संलग्न रहे। ऐसा मुनि संसार से पार होता है। ऐसा मैं कहता हूं । हिन्दी - विवेचन संसारी जीवन में जन्म और मृत्यु दोनों का अनुभव होता है। यह ठीक है कि दुनिया के प्रायः सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरने की कोई आकांक्षा नहीं रखता । मृत्यु का नाम सुनते ही लोग कांप उठते हैं, उससे बचकर रहने का प्रयत्न करते हैं । फिर भी मृत्यु का आगमन तो होता ही है। इस तरह सामान्य मनुष्य मृत्यु की अपेक्षा जीवन को, जन्म को महत्त्वपूर्ण समझते हैं। परन्तु, महापुरुष एवं ज्ञानी पुरुष मृत्यु को भी महत्त्वपूर्ण समझते हैं। वे भी बचने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु मृत्यु से नहीं, जन्म से। क्योंकि जन्म कर्मजन्य है और मृत्यु कर्मक्षय का प्रतीक है। आयुकर्म का बन्ध होने पर जन्म होता है और उसका क्षय होना मृत्यु है । अतः ज्ञान- संपन्न मुनि आयुकर्म का क्षय करने का प्रयत्न तो करता है, परन्तु उसके बांधने का प्रयास नहीं करता है । वह सदा कर्मबन्ध से बचना चाहता है । क्योंकि, यदि कर्म का बन्ध नहीं होगा तो फिर पूर्व कर्म के क्षय के साथ पुनर्जन्म रुक जाएगा और जन्म के साथ फिर मृत्यु का अन्त तो स्वतः ही हो जाएगा। जब कर्म ही नहीं रहेगा तो फिर उस के क्षय का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा। इस प्रकार जन्म से बचने का अर्थ है - जन्म-मरण के प्रवाह से मुक्त होना। इसलिए मुनि मृत्यु से भय नहीं खाते। वे मृत्यु को अभिशाप नहीं, अपितु वरदान समझते हैं । अतः पण्डितमरण के द्वारा उसे सफल बनाने में या यों कहिए अपने साध्य को सिद्ध करने में सदा संलग्न रहते हैं । प्रस्तुत सूत्र में यही बताया है कि जैसे योद्धा युद्ध क्षेत्र में मृत्यु को सामने देखकर भी घबराते नहीं, उसी तरह कर्मों एवं मनोविकारों के साथ युद्ध करने में संलग्न साधक भी मृत्यु से भय नहीं खाता है । यदि कोई उस पर प्रहार भी कर दे, तब भी वह विचलित नहीं होता, घातक के प्रति मन में भी द्वेष भाव नहीं लाता है। उस समय भी वह शान्त मन से आत्मचिन्तन में संलग्न रहता है । इसी तरह मृत्यु के निकट आने पर भी वह घबराता नहीं और न उससे बचने का ही कोई प्रयत्न करता
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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