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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
. इस प्रकार का विवेकशील, संयमनिष्ठ मुनि प्राणिमात्र का शरणभूत हो सकता है। जैसे समुद्र में परिभ्रमित व्यक्ति के लिए द्वीप आश्रयदाता होता है, उसी तरह ज्ञान एवं आचार सम्पन्न मुनि भी प्राणिमात्र के लिए आधारभूत होता है और प्राणिजगत की रक्षा करता हुआ विचरता है। इससे स्पष्ट हो गया कि मुनि किसी भी प्राणी को क्लेश पहुंचाने का कोई कार्य न करे। अपने उपदेश में किसी पर आक्षेप न करे।
दूसरी बात यह है कि संयमशील साधक ही दूसरों का सहायक हो सकता है। अतः मुमुक्षु पुरुष को संसार की परिस्थिति का परिज्ञान करके आरम्भ से निवृत्त रहना चाहिए। क्योंकि, आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं करता है। वह रात-दिन अशान्ति की आग में जलता रहता है। इसलिए साधक को आरम्भ आदि से सदा दूर रहना चाहिए।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउ, त्तिबेमि॥193॥
छाया-कायस्य व्याघातो एषः संग्रामशीर्षे व्याख्यातः स पारगामी मुनि अविहन्यमानः फलकवत् स्थायी (फलकवदवतिष्ठते) कालोपनीतः कांक्षेत् कालं यावत् शरीरभेदः इति ब्रवीमि।
पदार्थ-कायस्स-काया का। वियाघाए-विनाश। एस-यह। संगामसीसेसंग्राम का शीर्षरूप। वियाहिए-कहा गया है। हु-अवधारणार्थ में है, जो मुनि। अविहम्ममाणे-परीषहों से पराभूत नहीं होता है। फलगावयट्ठी-शरीर पर प्रहार होने पर भी फलग की तरह स्थिर रहता है। कालोवणीए-काल-मृत्यु के निकट आने पर भी जो घबराता नहीं, बल्कि पादोगमन, इंगितमरण और भक्तप्रत्याख्यान अनशन के द्वारा । कालं कंखिज्जा-काल की आकांक्षा करता है। जावसरीरभेउ-जब तक शरीर से आत्मा पृथक् नहीं होती है। से-वह। मुणी-मुनि। पारंगमे-संसार समुद्र से पार हो जाता है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-जिस प्रकार वीर योद्धा संग्राम में निर्भय होकर विजय को प्राप्त