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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 5
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- मूलार्थ-हे आर्य! तू विचार कर। धर्म कथा करते समय मुनि अपनी आत्मा तथा अन्य सुनने वाले श्रोताओं की आशातना-अवहेलना न करे और न प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की ही आशातना करे। आशातना नहीं करने वाला मुनि आशातना न करता हुआ, दुःखों से पीड़ित प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का उस विशाल द्वीप की तरह आश्रयभूत होता है, जो समुद्र में डूबते हुए एवं व्यथित प्राणियों को आश्रय देता है। इस तरह ज्ञानादि में स्थित, स्नेह-रागभाव से रहित संयम-निष्ठ मुनि परीषहों के समय अविचिलत एवं अप्रतिबंध विहारी और संयमानुसार शुद्ध अध्यवसायों में स्थित रहता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे। कषायों के क्षयोपशम से धर्म के यथार्थ रूप को जानकर ज्ञानसंपन्न मुनि शान्त भाव से आत्मचिन्तन में संलग्न रहता है। हे शिष्यो! तुम यह देखो कि जो व्यक्ति सांसारिक पदार्थों में एवं काम-भोगों में आसक्त हैं या काम-भोगों ने जिन्हें आक्रान्त बना रखा है, वे शान्ति नहीं पा सकते हैं। इसलिए बुद्धिमान पुरुष, संयमानुष्ठान से भयभीत नहीं होते हैं। जो इन आरम्भादि से सुपरिज्ञात-सुपरिचित होते हैं, वे ही शान्ति को प्राप्त करते हैं। अतः वह भिक्षु क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करके इस संसार-सागर से पार हो सकता है। ऐसा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने कहा है। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
• यह हम देख चुके हैं कि उपदेश प्राणियों के हित के लिए दिया जाता है। अतः उपदेष्टा को सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि परिषद् किस विचार की है; उसका स्तर कैसा है। उसके स्तर एवं योग्यता को देखकर दिया गया उपदेश हित-प्रद हो सकता है। उससे उनका जीवन बदल सकता है। परन्तु, परिषद् की विचारस्थिति को समझे बिना दिया गया उपदेश वक्ता एवं श्रोता दोनों के लिए हानिप्रद हो सकता है। यदि कोई बात श्रोताओं के मन को चुभ गई तो उनमें उत्तेजना फैल जाएगी और उत्तेजना के वश वे वक्ता को भी भला-बुरा कह सकते हैं या उस पर प्रहार भी कर सकते हैं। इस प्रकार बिना सोचे-समझे अविवेकपूर्वक दिया गया उपदेश दोनों के लिए अहितकर हो सकता है। अतः प्रस्तुत सूत्र में यह कहा गया है कि मुनि को व्याख्यान में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे स्व एवं पर को संक्लेश
पहुंचे।