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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध पाणाइं-प्राणियों की। भूयाइं-भूतों की। जीवाइं-जीवों की। सत्ताई-सत्वों की। नो-नहीं। आसाइज्जा-आशातना करे। से-वह भिक्षु। अणासायए-आशातना न करने वाला। अणासायमाणे-अन्य की आशातना न करता हुआ। बज्झमाणाणंवध्यमान। पाणायं-प्राणियों को। भूयाणं-भूतों को। जीवाणं-जीवों को। सत्ताणंसत्त्वों को। से-वह। असंदीणे-जिसमें पानी नहीं भरता है, अर्थात् जो जल से सुरक्षित है ऐसा विशाल। दीवे-द्वीप। जहा-जैसे होता है। एयं-इस प्रकार। से-वह। महामुणी-महामुनि। सरणं भवइ-संसार जीवों को शरण भूत होता है। एवं-इसी प्रकार से। से-वह शरण भूत मुनि। उट्ठिए-संयमानुष्ठान में उद्यत। ठियप्पा-ज्ञानादि में स्थित। अणिहे-स्नेह से रहित। अचले-परीषहों से अचलायमान । चले-अप्रतिबन्ध होकर विचरने वाला। अबहिल्लेसे-जिसकी लेश्या अध्यवसाय संयम के बाहर नहीं है, ऐसा मुनि। परिव्वए-संयमानुष्ठान में चले। दिट्ठिमं-सम्यग दृष्टि। धम्म-धर्म को। संखाय-अवधारण कर के। पेसलंमनोहर। परिनिव्वुडे-निवृत्त कषायों के क्षय या उपशम होने से शान्त हो जाता है। इति-इस हेतु से। तम्हा-इसलिये। पासह-कहे शिष्यो! तुम। सगं-संग के विपाक को देखो। गंथेहिं-बाह्याम्यन्तर परिग्रहों से। गढिया-प्रतिबध। विसन्नापरिपूर्ण वे पुरुष। कामक्कंता-विषय-विकारों से आक्रान्त हुए। नरा-मनुष्य निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकते। अतः उन्हें क्या करना चाहिए? तम्हा-इस लिए। लूहाओ-संयम से। नो परिवितसिज्जा-वे त्रास न पाए, संयम के कष्टों से भयभीत न होए? जास्सिमे-जिस मुनि के ये संग और। आरंभा-आरम्भ। सव्वओ-सर्व प्रकार से। सव्वप्पयाए-सर्वात्म रूप से। सुपरिन्नाया-ज्ञ परिज्ञा से भली प्रकार जाने गए हैं और प्रत्याख्यान से त्यागे गए हैं। भवंति-वे ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं। तेसिमे-जो जन आरंभ में आसक्त हैं। लूसिणो-हिंसा करने वाले हैं। नो परिवित्तसंति-पाप कर्म करते हुए त्रास नहीं पाते, अतः। से-वह मुनि। कोहं च-क्रोध को और। माणं च-मान को और। मायं च-माया को और। लोभं च-लोभ को। वंता-छोड़कर। एस-वह मोह रहित हो जाता है, तो वह। तुट्टे-भव भ्रमण से छूटा हुआ। वियाहिए-तीर्थंकरों द्वारा कहा गया है। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं।