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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वे उन्हें पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं, उपाय सोचते हैं और अनेक तरह के कष्ट देते हैं। ऐसे समय में भी मुनि अपने स्वभाव का, अर्थात् समभाव की साधना का त्याग न करे। उन कठोर स्पर्शों एवं दुःखों से घबराकर उन पर मन से भी द्वेष न करे, उन्हें कटु वचन न कहे और न उन्हें अभिशाप ही दे, प्रत्युत शान्त भाव से उन्हें सहन करते हुए संयम का पालन करे। यदि उचित समझे तो उन्हें भी धर्म का, शान्ति का उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। ___ मुनि जीवन की उदारता एवं विराट्ता को बताते हुए प्रस्तुत सूत्र में यह महत्त्वपूर्ण बात कही गई है कि मुनि सब जीवों पर दया भाव रखे। वह उपकारी एवं अनुपकारी,
जैन एवं अजैन, अमीर एवं गरीब, धर्मनिष्ठ एवं पापी, ब्राह्मण एवं शूद्र आदि पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं करते हुए, सब जीवों का कल्याण करने की तथा विश्वबन्धुत्व की भावना से सबको सन्मार्ग दिखाने का प्रयत्न करे। उसके इस उपदेश का क्षेत्र कोई शहर विशेष या स्थान विशेष नहीं, अपितु सूत्रकार की भाषा में पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि सभी दिशाएं-विदिशाएं हैं। वह किसी स्थान विशेष का आग्रह न रखते हुए, जहां भी आवश्यकता अनुभव करता है, वहीं उपदेश की धारा बहाने लगता है। उसका उपदेश व्यक्ति विशेष एवं जाति विशेष के लिए नहीं, अपितु मानव मात्र के लिए होना चाहिए। वह भी किसी जाति, धर्म, पंथ एवं सम्प्रदाय विशेष का साधु नहीं, अपितु अपने हित के साथ मानव मात्र का, प्राणिजगत का हित साधने वाला साधु है । अतः वह सब को समभावपूर्वक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और क्षमा, शान्ति, आर्जव आदि धर्मों का उपदेश देकर प्राणिजगत को कल्याण का मार्ग बताता है, सबको जीओ और जीने दो का मन्त्र सिखा कर सुख-शान्ति से रहना एवं जीना सिखाता है। __ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व का अर्थ है-दस प्राण धारण करने वाले सन्नी पंचेन्द्रिय प्राणी, भव्य जीव। जिनमें मोक्ष जाने की योग्यता है, वे भूत कहलाते हैं; संयमनिष्ठ जीवन जीने वाले जीव और तिर्यंच, मनुष्य एवं देव सत्त्व
1. स्वपर हितं साध्यतीति साधुः। 2. प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व शब्दों के अर्थ शीलांकाचार्य कृत वृत्ति के अनुसार किए गए हैं।
-आचाराङ्गवृत्ति, पृष्ठ, 256