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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध समणो भवित्ता विब्भंते-विभंते पासहेगे समन्नागएहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरएहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठियढे वीरे आगमेणं सया परक्कमिजासि त्तिबेमि॥19॥
छाया-किमनेन भो! जनेन करिष्यामीति मन्यमानाः एवमेके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन च परिग्रहं वीरायमाणाः समुत्थाय अविहिंसाः सुव्रताः दान्ताः पश्य! दीनान् उत्पत्तितान् प्रतिपततः वशार्ताः कातराः जनाः लूषकाः भवन्ति अथ एकेषां श्लोको पापको भवति स श्रमणो भूत्वा विभ्रान्तो विभ्रान्तः पश्य एके समन्वागतैः सह असमन्वागतान् नममानैः अनममानान्, विरतैरविरतान् द्रव्यैरद्रव्यानभिसमेत्य पंडितः मेधावी निष्ठितार्थी वीरः आगमेन सदा परिक्रामयेरिति ब्रवीमी।
पदार्थ-भो-आमन्त्रणार्थ में है। जणेण-माता-पिता आदि से। किमणेण-मैं क्या। करिस्सामित्ति-करूंगा, इस प्रकार। मन्नमाणे-मानता हुआ, संसार के स्वरूप को जानने वाले। एगे-कई एक। वइत्ता-यह कहकर । मायरं-माता को। पियरं-पिता को। हिच्चा-छोड़कर। य-और। नायओ-ज्ञातिजनों को। परिग्गहपरिग्रह को। वीरायमाणा-आत्मा को वीर की भांति मानते हुए। समुट्ठाए-संयमानुष्ठान में सम्यक् प्रकार से सावधान होकर। अविहिंसा-दया के धारण करने वाले। सुव्वया-सुन्दर व्रतों का सेवन करने वाले। दंता-इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, हे शिष्य! इनको। पस्स-तू देख! जो कि पहले सिंह की भांति दीक्षा के लिए उद्यत होकर, फिर पतित हो जाते हैं। दीणे-उन दीनों को। उप्पइए-पतितों को। पडिवयमाणे-संयम से गिरते हुओं को वे, किस कारण से पतित हो जाते हैं? वसट्टा-वे इन्द्रियों के वशीभूत होने से आर्त हो रहे हैं। कायरा-परीषहोपसर्गादि के सहन करने में कायर। जणा-जन। लूसगा-व्रतों के विध्वंसक हो जाते हैं, अब उसका फल दिखाते हुए कहते हैं। अहमेगेसिं-उनमें से कई एक की। सिलोए-श्लाघा रूप कीर्ति । पावए भवइ-पापरूप होती है, अर्थात् यश के स्थान में अपयश हो जाता है। से-वह। समणो-श्रमण। भवित्ता-होकर। विभते-विभ्रांत होकर श्रमण भाव से गिर जाते हैं। पासह-हे शिष्य तू देख! एगे-कई एक। समन्नागएहिं