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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 4
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· मूलार्थ-संयम से पतित होते हुए शिष्य के प्रति गुरु कहते हैं-हे शिष्य! तू अधर्मार्थी है, बाल है और आरम्भ में प्रवृत्त हो रहा है। हिंसक पुरुषों के वचनों का अनुसरण करके तू भी कहता है कि प्राणियों का अवहनन-घात करो और तू दूसरों से हनन करवाता है तथा हिंसा करने वालों को अच्छा भी समझता है, अतः तू बाल है। आश्रवों का निरोधक होने से ही भगवान ने धर्म को घोर-दुरनुचर कहा है। किन्तु, तू उस धर्म की उपेक्षा करता है। भगवान की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से तू स्वेच्छाचारी बन गया है। इन पूर्वोक्त कारणों से तथा काम-भोगों में आसक्त और संयम के प्रतिकूल आचरण करने के कारण तू हिंसक कहा गया है। इस प्रकार मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन
जब साधक साधनापथ से एक बार फिसलने लगता है, तो बीच में उचित सहयोग न मिलने या मोहकर्म के उदय के कारण फिर वह फिसलता ही जाता है। उनका पतन यहां तक हो जाता है कि वह अन्य हिंसक प्राणियों की तरह आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहने लगता है। अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए वह हिंसा, झूठ आदि दोषों का सेवन करने लगता है। वह विषय-कषाय में आसक्त होकर धर्म से सर्वथा विमुख हो जाता है और इससे पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है।
. शिष्य को जागृत करते हुए गुरु कहते हैं कि हे आर्य! तुझे संयमपथ से भ्रष्ट, 'अधर्मी व्यक्ति के दुःखद एवं अनिष्टकर परिणाम को जानकर सदा संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। संयमपथ से भ्रष्ट व्यक्ति को अधर्मी, स्वेच्छाचारी, भगवान की आज्ञा से बाहर एवं संसार में परिभ्रमण करने वाला कहा गया है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सदा शुद्ध संयम का परिपालन करना चाहिए।
गुरु द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे वसट्ठा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहमेगेसिं सिलोए पावए-भवइ, से