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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
____अतः साधक को ऐसे विचारकों का त्याग करके श्रद्धापूर्वक ज्ञान एवं क्रिया तथा आचार एवं विचार की साधना करनी चाहिए। आचार एवं विचार से संपन्न साधक ही आत्मा का विकास कर सकता है। ज्ञान से रहित केवल आचार का पालन करने वाले तथा क्रिया-काण्ड से शून्य केवल (मात्र) ज्ञान की साधना में संलग्न साधक यथार्थ रूप से आत्मा का विकास नहीं कर सकते हैं। ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना के अभाव में साधक पतन की ओर भी लुढ़क सकता है और वह भगवदाज्ञा के विपरीत चलकर संसार को भी बढ़ा सकता है।
इसी बात को दिखाते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अहम्मट्ठी तुमंसि नाम बाले आरम्भट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समुणजाणमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसन्ने वियद्दे वियाहिए, त्तिबेमि॥189॥
छाया-अधर्मार्थी त्वमेव नाम बालः आरम्भार्थी अनुवदन् जहि प्राणिनः घातयन् घ्नतश्चापि समनुजानासि (समनुजानान्) घोरो धर्मः, उदीरितः उपेक्षते (ण) अनाज्ञया एषः विषण्णो वितर्दो व्याख्यातः इति ब्रवीमि।।
पदार्थ-संयम से पतित होते हुए साधक को गुरुदेव शिक्षा देते हैं। नामसम्भावनार्थ में है। तुमंसि-हे शिष्य! तू। अहम्मट्ठी-अधर्मार्थी है। बालेबाल-अज्ञानी है और। आरंभट्ठी-आरम्भार्थी-आरम्भ करने वाला है। अणुवयमाणे-हिंसक पुरुषों के वचनों का अनुसरण करने वाला होने से तू इस प्रकार कहता है। हणपाणे-प्राणियों का हनन करो। घायमाणे-दूसरों से हिंसा करवाता है। हणओ यावि-हिंसा करने वाले अन्य प्राणियों का। समणुजाणमाणे-अनुमोदन करता है-उन्हें भला जानता है, अतएव तू बाल है। घोरे-धम्मे-आश्रव का निरोधक होने से भगवान ने धर्म को घोर-महान्। उदीरिए-कथन किया है, तू उस धर्म की। उवेहइ-उपेक्षा करता है। णं-वाक्यालंकार में है। अणाणाए-भगवद् आज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से तू स्वेच्छाचारी बन रहा है। एस-इन पूर्वोक्त कारणों से तू बाल है, अतः। विसन्ने-काम-भोगों में आसक्त। वियद्दे-हिंसक। वियाहिए-कहा गया है। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।