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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 4
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- मूलार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू! कई एक साधक पुरुष आचार्यादि को श्रुतज्ञान के लिए भाव रहित नमस्कार करते हुए परीषहों के स्पर्शित होने पर केवल असंयमित-असंयत जीवन के लिए संयममय जीवन का परित्याग कर देते हैं। उनका संसार से निकलना श्रेष्ठ नहीं कहलाता है। वे बाल अर्थात् प्राकृत जनों द्वारा भी निन्दा के पात्र बनते हैं और चार गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। संयम स्थान से नीचे गिरते हुए अथवा अविद्या के वशीभूत होकर वे अपने आप को परम विद्वान् मानते हुए तथा मैं परम शास्त्रज्ञ अथवा बहुश्रुत हूं, इस प्रकार आत्मश्लाघा में प्रवृत्त हुए अभिमानी जीव, मध्यस्थ पुरुषों को भी कठोर वचन कहते हैं। उनके भूतपूर्व चरित्र को लेकर वे उन पुरुषों की निन्दा करते हैं, अश्लीलं वचनों तथा मुखविकारादि कुचेष्टाओं से वे गुरुजनों की भी अवहेलना करते हैं। अतः बुद्धिमान पुरुष, श्रुत और चारित्र रूप धर्म को या वाच्य और अवाच्य को भली-भांति जानने का प्रयत्न करे। हिन्दी-विवेचन .
यह हम देख चुके हैं कि ज्ञान-प्राप्ति के लिए विनय की आवश्यकता है। परन्तु, उसके साथ निष्ठा-श्रद्धा का होना भी आवश्यक है। कुछ साधक ज्ञान की प्राप्ति के लिए आचार्य एवं गुरु को यथाविधि वन्दन-नमस्कार तो करते हैं। परन्तु गुरु के प्रति श्रद्धा-भाव नहीं रखते। अतः उनका विनय या वन्दन केवल दिखावा मात्र होता है। परिणामस्वरूप वे अपनी ज्ञान-साधना में सफल नहीं होते हैं। उनके हृदय में श्रद्धा नहीं होने के कारण उनका मन साधना में नहीं लगता है। इस तरह वे संयम से गिर जाते हैं और अपने दोषों को छिपाने के लिए महापुरुषों की निन्दा करके पाप कर्म का बन्ध करते हैं और जन्म-मरण के प्रवाह को बढ़ाते हैं।
वे अज्ञानी व्यक्ति अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं। वे अपने आपको सबसे अधिक ज्ञानी, ईमानदार एवं चरित्रवान समझते हैं। वे आचारनिष्ठ महापुरुषों की सदा आलोचना करते रहते हैं। उनके जीवन में से दोषों का अन्वेषण करने में ही संलग्ने रहते हैं। सदा गुरुजनों पर व्यंग्य कसते हैं तथा शारीरिक इशारों के द्वारा उनका उपहास करते हैं। इस प्रकार महापुरुषों की निन्दा करके वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।