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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम् - नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति पुट्ठा वेगे नियट्टन्ति जीवियस्सेव कारणा, निक्खतंपि तेसिं दुन्निक्खंतं भवइ, बालवयणिज्जा हु नरा, पुणो पुणो जाई पकप्पिति अहे संभवंता विद्दायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं पकथे अदुवा पकथे अतहेहिं, तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्मं ॥188 ॥
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छाया - नमन्तो वैके जीवितं विपरिणामयन्ति स्पृष्ठाः वैके निवर्त्तन्ते जीवितस्यैव कारणात् निष्क्रान्तमपि तेषां दुर्निष्क्रान्तं भवति बालवचनीयाः हु ते नरा; पौनःपुन्येन जातिं प्रकल्पयन्ति अधः संभवन्तो विद्वांसो मन्यमानाः अहमस्मीति व्युत्कर्षयेत् उदासीनान् परुषं वदन्ति पलितं ( अनुष्ठानं ) प्रकथयेत् अथवा प्रकथयेद् अतथ्यैः तद् (तंवा) मेधावी जानीयाद् धर्मम् ।
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पदार्थ–एगे-कई एक साधु । नममाणा - श्रुतज्ञान के लिए भावशून्य नमस्कार करते हुए। जीवियं-संयम जीवन का । विप्परिणामंति-नाश करते हैं । वा - अथवा | एगे - कई एक । पुट्ठा - परीषहों के स्पर्श होने पर । नियटंति - संयम या लिंग - भेष से निवृत्त हो जाते हैं । एव - अवधारणार्थक है । जीवियस्स - असंयममय जीवन के । कारणा-कारण। से- निमित से । तेसिं - उनका । निक्खतंपि - गृहस्थावास से निकलना भी। दुन्निक्खंतं–दुष्कर । भवइ - होता है । हु-जिस से। बालवयणिज्जाबाल अर्थात् प्राकृत पुरुषों में भी निन्दनीय । ते - वे । नरा - मनुष्य । पुणोपुणो- पुर्नपुनः । जाई - चतुर्गतिरूप उत्पति स्थान में । पकप्पिति - परिभ्रमण करते हैं! कौन ? अहे संभवंता - जो संयम स्थान से निम्न स्तर पर बर्ताव करने वाले अथवा संयम मार्ग से पतित होने वाले, तथा । विद्दायमाणा - अपने आप को ही विद्वान मानने वाले हैं। अहमंत्रीति- मैं ही सबसे अधिक विद्वान हूं इस प्रकार) बिहक्क - अहंकार करने वाले, अर्थात् आत्मश्लाघी पुरुष, अन्य । उदासीणे - मध्यस्थ व्यक्तियों को । फरुसंकठोर वचन। वयंति–बोलते हैं, तथा । पलियं - पूर्व आचरित अनुष्ठान के द्वारा । पकथे-निन्दा करते हैं यथा तू वाचाल है इत्यादि । अदुवा - अथवा | अतहेहिं - अ वचनों से गाली प्रदान करते हैं और मुख विकारादि कुचेष्टाओं से । पकथे - गुरु जनों की हीलना करते हैं। मेहावी - बुद्धिमान । तं - उस श्रुत और चारित्र रूप । धम्मं - धर्म अथवा वाच्य को । जाणिज्जा - भली-भांति जाने |
-असत्य