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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 4
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त्याग कर देते हैं, वे। नाणभट्ठा-ज्ञान से भ्रष्ट होते हैं और। दंसणलूसिणो-दर्शन के नाशक होते हैं। __ मूलार्थ-कुछ साधक मुनि वेश का त्याग करने पर भी आचारसंपन्न मुनियों का आदर करते हैं। वे संयमनिष्ठ मुनियों की निन्दा नहीं करते, परन्तु अज्ञानी पुरुष ज्ञान एवं दर्शन-श्रद्धा दोनों के विध्वंसक होते हैं। हिन्दी-विवेचन . ज्ञान, दर्शन, चारित्र की समन्वित साधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः जीवन-विकास के लिए रत्न-त्रय की साधना महत्त्वपूर्ण है। इनमें ज्ञान और दर्शन सहभावी हैं, दोनों एक साथ रहते हैं। सम्यग् ज्ञान के साथ सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् दर्शन के साथ सम्यग् ज्ञान अवश्य होगा, परन्तु ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्र हो भी सकता है और कभी नहीं भी होता। किन्तु सम्यक् चारित्र के साथ सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन अवश्य होगा। उनके अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं रह सकता है। सम्यग् ज्ञान के अभाव में चारित्र-भले ही वह आगम में प्ररूपित आचार या क्रिया कांड भी क्यों न हो, मिथ्या चारित्र ही कहलाएगा।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग् ज्ञान युक्त चारित्र का ही महत्त्व है। अतः यदि कोई व्यक्ति चारित्र मोहकर्म के उदय से संयम का त्याग भी कर देता है। परन्तु, श्रद्धा-ज्ञान एवं दर्शन का त्याग नहीं करता है, तो वह संयम से गिरने पर भी मोक्ष मार्ग से सर्वथा भ्रष्ट नहीं होता है। वह अपने विकास पथ से पूर्णतः नहीं गिरता है। वह व्यक्ति संयम का त्याग करने पर भी आचार एवं विचार निष्ठ मुनियों की निन्दा एवं अवहेलना नहीं करता है। वह उन्हें आदर की निगाह से देखता है। उसकी विवेक दृष्टि पूरी तरह बन्द नहीं हुई है। परन्तु, जो अज्ञानी हैं अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन का भी त्याग कर चुके हैं, उन पर 'इतोभ्रष्टस्ततोनष्टः' की कहावत पूर्णतः लागू होती है। वे धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहते हैं और न घाट के। वे अपने जीवन का भी पतन करते हैं और चारित्र-निष्ठ पुरुषों की निन्दा करके उन्हें बदनाम करने का भी प्रयत्न करते हैं तथा अन्य लोगों के मन में उनके प्रति रही हुई श्रद्धा-निष्ठा को निकालकर उनको भी पतन के पथ पर ले जाने का प्रयत्न करते हैं।
इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं