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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कहता है। मंदस्स-उस मंद बुद्धि वाले साधक की यह। बिइया-दूसरी। बालयामूर्खता है।
__ मूलार्थ-आचारनिष्ठ, उपशांत कषाय वाले और ज्ञानपूर्वक संयम में संलग्न साधक को दुराचारी कहना उस मन्द बुद्धि एवं बाल अज्ञानी साधक की दूसरी मूर्खता है। हिन्दी-विवेचन
जीवन का अभ्युदय ज्ञान, आचार एवं कषायों की उपशांतता पर आधारित है। ज्ञान एवं आचारसंपन्न पुरुष विकारों पर विजय पा सकते हैं। वे उदय में आए हुए कषायों को भी उपशांत कर सकते हैं। अतः ऐसे साधक ही आत्मविकास कर सकते हैं। कुछ व्यक्ति साधना के पथ को तो स्वीकार करते हैं, परन्तु मोहोदय के कारण वे संयम से गिर जाते हैं। वे साधक अपने दोषों को न देखकर शुद्ध संयम में संलग्न साधकों की अवहेलना करते हैं। वे उन्हें दुराचारी, पाखण्डी, मायाचारी एवं कपटी आदि बताकर उनका तिरस्कार करते हैं। इस तरह वे अज्ञानी व्यक्ति संयम का त्याग करके पहली मूर्खता करते हैं और फिर महापुरुषों पर झूठा दोषारोपण करके दूसरी मूर्खता करते है। इस प्रकार वे पतन के महागर्त में जा पड़ते हैं।
अतः मुमुक्षु पुरुष को किसी भी संयम-निष्ठ पुरुष की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। इस संबन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-नियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, नाणभट्ठा दसणलूसिणो॥18॥
छाया-निवर्तमाना (उपशान्ता) वैके आचारगोचरमाचक्षते, ज्ञान भ्रष्टः, दर्शनलूषिणः (विध्वंसिनः)।
पदार्थ-एगे-कई एक। नियट्टमाणा वा-संयम से निवृत्त होते हुए या वेश का परित्याग करते हुए। आयारगोयरं-जो आचार का परिपालन करते हैं, वे धन्य हैं। आइक्खंति-ऐसा कहते हैं, वे आचार सम्पन्न मुनियों की निन्दा नहीं करते हैं। परन्तु, जो वेश का त्याग करके या वेश को रखते हुए भी सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन का