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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 4
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द्वारा आगम का ज्ञान प्राप्त करके भी वह ज्ञान के मद में गुरु के उपकार को भी भूल जाता है। वह उपशम का त्याग करके कठोरता को धारण कर लेता है। उपशम का अर्थ है-विकारों को शान्त करना। यह द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। पानी में मिली हुई मिट्टी को उससे अलग करने के लिए उसमें बीजों का निर्मल चूर्ण डालते हैं या फिटकरी फेरते हैं, जिससे मिट्टी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है। यह द्रव्य उपशम है। आत्मा में उदय भाव में आए हुए कषायों को ज्ञान के द्वारा उपशांत करना भाव उपशम है। जैसे वायु के प्रबल झोकों से शान्त पानी में लहरें . उठने लगती हैं, उसी तरह मोह के उदय से आत्मा में भी विषमता एवं विकारों की तरंगें उछल-कूद मचाने लगती हैं और संयम में स्थित साधु भी तीर्थंकर, आचार्य आदि महापुरुषों की अवज्ञा करने लगता है। वह साता-सुख-शान्ति, रस एवं ऋद्धि इन तीन गौरवों के वश में होकर किसी की भी परवाह नहीं करता है और अपने आपको सबसे अधिक योग्य समझने लगता है। ...
..आगमों का अध्ययन संयम में आने वाले दोषों को दूर करके शुद्ध संयम का परिपालन करने की दृष्टि से नहीं, अपितु केवल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने एवं दूसरों पर. अपना प्रभाव डालने के लिए ही करते हैं। अतः ज्यों ही उनका थोड़ा-सा अध्ययन होता है, त्यों ही वे एकदम मेंढकों की तरह उछल-कूद मचाने लगते हैं। ऐसे अभिमानी
एवं अविनीत शिष्य अपने गुरु एवं अन्य वरिष्ठ पुरुषों की अवहेलना करने में भी - संकोच नहीं करते।
वे संघ के अन्य साधुओं के साथ भी शिष्टता का व्यवहार नहीं करते। उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते रहते हैं। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूलम्-सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया॥186॥ ___ छाया-शीलवन्तः उपशान्ताः संख्यया रीयमाणाः अशीला अनुवदतः द्वितीया मन्दस्य बालता।
पदार्थ-सीलमंता-आचार-सम्पन्न। उवसंता-उपशांत कषाय वाले। संखाएज्ञान पूर्वक। रीयमाणा-संयम में संलग्न साधु को, वे बाल अज्ञानी कहते हैं, कि। असीला-यह साधु दुराचारी है। अणुवयमाणस्स-वह उन्हें पार्श्वस्थ आदि भी