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________________ 680 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध भाव को। हिच्चा-छोड़कर। फारुसियं-कठोर भाव को। समाइयंति-ग्रहण करते हैं और। बंभचेरंसि-ब्रह्मचर्य में-संयम में। वसिता-वस कर। आणं तं-भगवद् आज्ञा को। नोत्ति-नहीं। मन्नमाणा-मानते हुए। तू-अवधारण अर्थ में है। आघायं-कुशील के विपाक को। सुच्चा-सुनकर। निसम्म-हृदय में विचार कर शिक्षक को कठोर वचन बोलते हैं, फिर। एगे-कई एक। समणुन्ना-लोक में प्रामाणिक होकर। जीविस्सामो-जीवन व्यतीत करेंगे, इस आशा से वे शब्द शास्त्र आदि को पढ़ते हैं। निक्खमंते-दीक्षा लेकर फिर मोह के उदय से। असंभवंता-तीन गौरव के वश होकर-मोक्ष मार्ग का अनुसरण न करके। विडज्झमाणा-मान में जलते हुए। कामेहिं-काम भोगों में। गिद्धा-मूर्छित-आसक्त तथा। अन्झोववन्नातीन गौरवों में अत्यन्तासक्त होकर। समाहिमाघायं-तीर्थंकर कथित समाधि का। अजोसयंता-सेवन न कर के। सत्थारमेव-शास्ता-गुरुजनों को ही। फरुसं-कठोर वचन। वयंति-बोलते हैं। मूलार्थ-हे जम्बू! कुछ शिष्य तीर्थंकर, गणधर तथा आचार्यादि प्रज्ञावानों के द्वारा रात-दिन पढ़ाये हुए, उनके समीप श्रुतज्ञान को प्राप्त कर के भी प्रबल मोहोदय से उपशम भाव को छोड़कर कठोर भाव को ग्रहण करते हैं। वे संयम में बसकर तीर्थंकर की आज्ञा को न मानते हुए तथा कुशील सेवन से उत्पन्न होने वाले कष्टों को सुनकर और हृदय में विचार कर भी कई साधु इस आशा से दीक्षा लेकर शब्द शास्त्रादि पढ़ते हैं कि हम लोक में प्रामाणिक जीवन व्यतीत करेंगे। मोह के प्राबल्य से वे बाल जीव तीन गौरवों के वशीभूत होकर भगवत् कथित मोक्ष मार्ग का सम्यक् प्रकार से अनुसरण न करते हुए अहंकार से जलते हैं। वे काम-भोगों में मूर्छित, गौरवों में अत्यन्त आसक्त हुए भगवत् कथित समाधिमार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं। यदि कभी गुरुजन उन्हें हित शिक्षा दें तो वे उनको भी कठोर वचन बोलते हैं और उनका तथा शास्त्रों का दोष निकालते हैं। हिन्दी-विवेचन ___ आगम में विनय को धर्म का मूल कहा है। निरभिमानता विनय का लक्षण है। अभिमान और विनय का परस्पर मेल नहीं बैठता। अभिमानी व्यक्ति गुरु का, आचार्य का एवं वरिष्ठ पुरुषों का आदर-सत्कार एवं विनय नहीं कर सकता। प्रज्ञावान पुरुषों.
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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