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________________ 678 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध वह संयमसंपन्न मुनि सब प्राणियों के लिए आश्रयभूत होता है। जैसे समुद्र में भटकने वाले प्राणियों की द्वीप रक्षा करता है, उसे आश्रय देता है, उसी प्रकार संयम-शील साधक सब प्राणियों की दया, रक्षा करता है। संयम सबके लिए अभय प्रदाता है। इससे बढ़कर संसार में कोई और आश्रय या शरण नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में केशीश्रमण के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने भी यही कहा है कि “संसार सागर में भटकने वाले प्राणी के लिए धर्म द्वीप ही सबसे श्रेष्ठ आश्रय है, उत्तम शरण है।" __ ऐसे संयम-निष्ठ मुनि ही समस्त प्राणियों के रक्षक हो सकते हैं। वे ही भोगासक्त व्यक्तियों को त्याग का मार्ग बताकर उन्हें निवृत्ति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं। ऐसे आचारसम्पन्न महापुरुषों का यह कर्तव्य बताया गया है कि वे साधक को तत्त्वों का यथार्थ बोध कराएं और ज्ञान के द्वारा उसकी साधना में तेजस्विता लाने का प्रयत्न करें। यदि किसी साधक के पैर लड़खड़ा रहे हैं, मन चल-विचलित हो रहा है, तो उस समय आचार्य एवं गीतार्थ (वरिष्ठ) साधु को चाहिए कि वह अपने अन्य सब कार्यों को छोड़कर उसके मन को स्थिर करने का प्रयत्न करे। उसे रात-दिन स्वाध्याय कराते हुए, आगम का बोध कराते हुए उसके हृदय में संयम के प्रति निष्ठा जगाने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार अगीतार्थ एवं चल-विचल मन वाले शिष्य को सुयोग्य बनाने का दायित्व आचार्य एवं संघ के वरिष्ठ साधुओं पर है। इस प्रकार संयम-निष्ठ एवं संयम में स्थिर हुआ साधक प्राणिजगत के लिए शरण रूप होता है। स्वयं संसारसागर से पार होता है और अन्य प्राणियों को भी पार होने का मार्ग बताता है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ 1. धम्मो दावो पइट्ठा य सरणमुत्तमं -उत्तराध्ययन, 23, 63
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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