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________________ षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 3 677 • के द्वारा उनकी आत्मा को धर्म में लगाते हैं। जहा-जैसे। से-वह। दिया-द्विज-पक्षी। पोए-अपने पोत-बच्चों का पालन करता है। एवं-इसी प्रकार । ते–वे महापुरुष। दिया-दिन। च-और। राओ-रात्रि में। य-समुच्चयार्थ में है। अपुव्वेण-अनुक्रम से। वाइयं-वाचनादि के द्वारा। सिस्सा-शिष्यों का पालन करते हैं; जिससे कि वे संसार समुद्र से पार होने में समर्थ हों। इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-सावद्य व्यापार से निवृत्त और संयम-मार्ग में विचरते हुए भिक्षु-जो चिर काल से संयम में अवस्थित है, को भी क्या अरति उत्पन्न हो सकती है? हां, कर्म की विचित्रता के कारण उसे भी संयम में अरुचि हो सकती है। परन्तु, संयम-निष्ठ मुनि को अरुचि उत्पन्न नहीं होती है। उत्कृष्ट संयम में आत्मा को जोड़ने वाला, सम्यक् प्रकार से समय में यत्नशील मुनि असन्दीन (कभी भी जल से नहीं भरने वाले) द्वीप की तरह सब जीवों का रक्षक होता है या यह तीर्थंकर प्रणीत धर्म द्वीप तुल्य होने से जीवों का रक्षक है। वे साधु भोगेच्छा से रहित एवं प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़िन नहीं करने वाले जगत प्रिय-वल्लभ, मेधावी और पंडित हैं। परन्तु; जो भगवान के धर्म में स्थिर चित्त नहीं हैं, ऐसे साधकों को आचार्यादि भी दिन और रात्रि में अनुलोम वाचनादि के द्वारा रत्नत्रय का यथार्थ बोध करवा कर संसारसमुद्र से तैरने के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन ____ आगमों में मोह कर्म को सबसे प्रबल माना है। जिस समय इसका उदय होता है, उस समय यह बड़े-बड़े योगियों को भी साधनापथ से च्युत कर देता है। इसी बात को बताते हुए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि मोह कर्म के उदय से भी साधक के मन में चिन्ता एवं साधना से घृणा उत्पन्न हो सकती है। अतः इस दुर्भावना को मन में पनपने नहीं देना चाहिए, प्रत्युत उसे तुरन्त निकाल फेंकने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे अपने मन को विषय-वासना एवं पदार्थों की आसक्ति से हटाकर संयम में लगाना चाहिए। उसे अपने चिन्तन की धारा को रत्न-त्रय की साधना की ओर मोड़ देना चाहिए, जिससे उसका मन संयम में तथा ज्ञान एवं दर्शन की साधना में संलग्न हो सके। इस प्रकार वीतराग प्रभु की आज्ञा के अनुसार संयम में संलग्न रहने वाला साधक कभी भी अपने पथ से भ्रष्ट नहीं होता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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