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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 3
675 हैं, मांस और रुधिर थोड़ा हो जाता है। वह संसार-परिभ्रमण को बढ़ाने वाली रागद्वेष रूप सन्तति को नष्ट करके और समत्व भाव एवं पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर संसार समुद्र को पार कर जाता है। वह सर्व संसर्ग से छूट जाता है। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन ... संसार में दो प्रकार का परिवर्द्धन होता है-1-शरीर और 2-भव भ्रमण। शरीर · का विकास प्रकाम-गरिष्ठ एवं पौष्टिक भोजन और आराम तलबी पर आधारित है
और भव भ्रमण का प्रवाह राग-द्वेष एवं विषय-वासना के आसेवन से बढ़ता है। मुनि का जीवन त्याग का जीवन है। वह भोजन करता है, वस्त्र पहनता है, मकान में रहता है; फिर भी इनमें आसक्त नहीं रहता। क्योंकि, वह इन्हें केवल संयम-पालन के साधन मानता है। अतः साधना को शुद्ध रखने के लिए वह सादा एवं सात्त्विक भोजनं या वस्त्रादि लेकर समभाव से संयम का पालन करता है और कभी समय पर यथाविधि शुद्ध-एषणिक आहार आदि उपलब्ध न होने पर भी वह किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करता है। वह इन सब परीषहों को समभावपूर्वक सहन करता है। इस प्रकार अनेक परीषहों को सहन करने से उसके शरीर का मांस सूख जाता है। उसका शरीर कृश-दुबला-पतला हो जाता है, परन्तु सहन शक्ति के साथ समभाव की धारा प्रवहमान रहने के कारण वह पूर्व बद्ध कर्मों को क्षय करके कर्म के बोझ से भी हल्का हो जाता है। इससे वह जन्म-मरण की परम्परा को परिवर्द्धित करने वाले राग-द्वेष का क्षय करके अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के संसार-परिवर्द्धन को समाप्त करके भवसागर से पार हो जाता है।
इससे स्पष्ट हो गया कि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से संपन्न साधक समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने में समर्थ होता है। इससे उसकी साधना में तेजस्विता आती है और वह संसार-परिभ्रमण को घटाता रहता है। इस प्रकार परीषहों को सहन करने से उसकी आत्मा का विकास होता है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्-विरयं भिक्खुं रीयंतं चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए?