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________________ 674 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध चाहिए। इस प्रकार साधक को समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में 'अचेलक' शब्द का प्रयोग किया गया है। कुछ लोग अचेलक शब्द का वस्त्ररहित अर्थ करते हैं। परन्तु, प्रस्तुत सूत्र में 'अ' अव्यय पूर्ण निषेध के अर्थ में नहीं, स्वल्प के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे कि अज्ञ का अर्थ है-स्वल्प ज्ञान वाला, न कि ज्ञान शून्य। इसी प्रकार अचेलक शब्द का तात्पर्य है-अल्प वस्त्र रखने वाला मुनि। यह हम स्पष्ट कर चुके हैं कि स्वल्प वस्त्र भी संयम-साधना के साधन हैं, साध्य नहीं। अतः साधक इनमें आसक्त नहीं रहता। इन सब उपकरणों में अनासक्त रहते हुए वह सदा संयम में संलग्न रहता है और आने वाले परीषहों को समभाव . पूर्वक सहन करता है। ____ परीषहों को सहन करने से आत्मा में किस गुण का विकास होता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते है मूलम्-आगयपनाणाणं किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कटु परिन्नाय, एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्तिबेमि॥183॥ .. छाया-आगतप्रज्ञानानां कृशाः बाहवः भवन्ति, प्रतनुके च मांसशोणिते, विश्रेणी कृत्वा परिज्ञाय, एष तीर्णः मुक्तः विरतः व्याख्यातः इति ब्रवीमि। पदार्थ-आगयपन्नाणाणं-जिनको परीषहों के सहन करने से उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति हो गई है, उनके। बाहवो-भुजाएं। किसा-कृश। भवंति होती हैं अथवा। बाहवो-बाधा-पीड़ा। किसा-कृश। भवंति होती हैं। य-और, मन के दृढ़ होने से। मंससोणिए-मांस-शोणित रुधिर। पयणुए-थोड़ा हो जाता है। विस्सेणिं-संसार रूप श्रेणी-जिसकी कषाय रूप सन्तति है, उसको क्षमादि के द्वारा नष्ट। कटु-करके तथा। परिन्नाय-समत्व भावना से जानकर। एस-उक्त लक्षण वाला मुनि। तिण्णे-संसार समुद्र को तैर गया है। मुत्ते-सब संग से मुक्त हो गया है। विरए-सर्व सावद्यानुष्ठान से रहित हो गया है। वियाहिए-ऐसा कहा गया है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-प्रज्ञावान मुनि की परीषहों को सहन करने से भुजाएं कृश हो जाती
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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