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- से पूर्णतः मुक्त थे। वे सदा अपने कर-पात्र (हाथ) में ही भोजन करते थे। उन्होंने कभी गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं किया।
द्वितीय-उद्देशक में यह बताया गया है कि भगवान सदा शून्य-स्थानों में एवं गांव या नगर के बाहर ठहरते थे और यह भी बताया गया है कि छद्मस्थ अवस्था में भगवान सदा प्रमाद (निद्रा) से दूर रहे। यदि कभी निद्रा आने को होती तो वे खड़े होकर या चंक्रमण-घूम-फिर करके उसे हटा देते थे। शून्य एवं निर्जन स्थानों में देव-दानव एवं जीव-जन्तुओं के द्वारा उन्हें अनेक परीषह एवं उपसर्ग दिये गए। परन्तु वे उनसे कभी घबराए नहीं, सदा-सर्वदा स्थिर मन से साधना में दृढ़ रहे।
तृतीय उद्देशक में भगवान महावीर के लाढ़ (अनार्य देश) में उत्पन्न परीषहों का वर्णन है। यह लाढ़ देश वर्तमान में गुजरात में पाए जाने वाले लाढ़ देश से भिन्न है। यह अनार्य देश बंगाल में था और बहुत करके बिहार प्रान्त की सीमा पर ही स्थित
था।
.... चतुर्थ उद्देशक में उनकी तप-साधना का वर्णन किया गया है। उसमें यह बताया गया है कि सर्प, कुत्ते आदि जानवरों के काटने या रोग के आने पर भी भगवान औषध का सेवन नहीं करते थे। उस समय भी वे तप-साधना को ही स्वीकार करते थे। - इस अध्ययन का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान महावीर की साधना सर्वोत्कृष्ट साधना थी। उनके जीवन में, साधना में अपवाद को तो कहीं अवकाश ही नहीं था।
टीकाकार
प्रस्तुत आगम पर अनेक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। आचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति लिखी। आचार्य शीलांक ने संस्कृत टीका की रचना की। आचार्य जिनहंस ने दीपिका लिखी और उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने बालावबोध की रचना की। इसके बाद गोपाल दास भाई ने इसका गुजराती में छायानुवाद किया। मुनि सन्तबाल जी ने प्रथम श्रुतस्कन्ध का गुजराती भाषा में अनुवाद किया। आचार्य अमोलक ऋषि जी म. ने सर्व प्रथम हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया और पं. मुनि श्री सौभाग्य चन्द्र जी महाराज ने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध पर हिन्दी-विवेचन किया।