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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अचेले-अल्प वस्त्र से। परिवुसिए-संयम मार्ग में विचरने वाला। अमोयरियाएऊनोदरी तप में। संचिक्खइ-भली प्रकार से स्थित होता है। से-वह-भिक्षु। आकुठे-वचन से आक्रोशित हुआ। वा-अथवा। हए-दण्डादि से ताड़ित हुआ। वा-अथवा। लुचिए-केशोत्पाटनादि से लुचित हुआ। वा-अथवा। पलियं पकत्थपूर्वकृत दुष्कृत्यों को उद्देश्य करके कोई उसकी निन्दा करता है। अदुवा-अथवा। अतहेहिं-अयथार्थ वचनों से। यथा-तू चोर है, दुराचारी है, इत्यादि। सद्द-इस प्रकार के असत् शब्दों से। फासेहि-अथवा शस्त्रादि के स्पर्शों से दुःख देता है, तब मुनि। इय-इस प्रकार से विचार करता है कि यह सब मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही फल है। संखाए-इस प्रकार विचारकर-जानकर। तितिक्खमाणे-कष्ट को सहन करता हुआ। परिव्वए-संयम में विचरे, तथा। एगयरे-अनुकूल परीषहों को। अन्नयरे-प्रतिकूल परीषहों को। अभिन्नाय-जानकर संयम मार्ग में ही विचरे। य-और। जे-जो परीषह। हिरी-सत्कार-पुरस्कारादि मन को प्रसन्न करने वाले। य-और। जे-जो परीषह। अहिरीमाणा-मन को अप्रसन्नता देने वाले, तथा। हिरी-जो परीषह लज्जा रूप हैं-याचना एवं अचेलादि रूप हैं, तथा जो। अहिरीमाणा-अलज्जा रूप-शीतोष्णादि रूप हैं; उनको सहन करता हुआ-संयम में विचरे।
मूलार्थ-कुछ एक व्यक्ति धर्म को ग्रहण कर, धर्मोपकरणादि से युक्त होकर संयम-मार्ग में विचरते हैं तथा माता-पिता आदि में अनासक्त होकर संयम में दृढ़
और सर्व प्रकार की भोगाकांक्षा को छोड़कर संयमानुष्ठान में प्रयत्नशील होते हैं। ___ संयम-मार्ग में चलने से ही वह मुनि कहलाता है। वह सर्व प्रकार के संग को . छोड़ कर-मैं इस संसार में अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है। इस प्रकार की भावना से आत्मा का अन्वेषण करता है, जिन शासन में विचरने का यत्न करता हुआ सावध व्यापार से रहित होकर वह अनगार सर्व प्रकार से मुण्डित होकर विचरता है और अचेल धर्म में बसा हुआ, दंडादि से ताड़ित, केशोत्पाटनादि से लुञ्चित, किसी पूर्व दुष्कृत्य के कारण निन्दित किया हुआ, अतथ्य शब्दों से पीड़ित किया हुआ और शस्त्रादि से घायल किया हुआ वह भिक्षु अपने स्वकृत पूर्व कर्मों के फल को विचार कर शान्त चित्त से संयम-मार्ग में विचरता है। इसी प्रकार अनुकूल और प्रतिकूल,. अर्थात् मन को प्रसन्न करने वाले तथा मन में खेद उत्पन्न करने वाले परीषहों को