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षष्ठ अध्ययन : धुत
द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में मोह पर विजय प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि . मोह पर विजय से कर्मों की निर्जरा होती है । अतः प्रस्तुत उद्देशक में कर्म- निर्जरा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - आउरं लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाई कुसीला॥178॥
छाया - आतुरं लोकमादाय त्वक्त्वा पूर्वसंयोगं हित्वा उपशमं उषित्वा ब्रह्मचर्ये वसुः बा अनुवसुः वा ज्ञात्वा धर्म यथा तथा अथैके तं पालायितुं न शक्नवन्ति कुशीलाः ।
पदार्थ-लोगं-माता-पिता आदि । आउरं - स्नेह राग तथा काम राग से आतुर लोगों को। आयाए-ज्ञान से जानकर; और । पुव्वसंजोगं - फिर माता-पिता आदि के पूर्व संयोग को । इत्ता - छोड़कर । उवसमं - उपशम को । हिच्चा - ग्रहण कर के तथा। बंभचेरंसि-ब्रह्मचर्य में । वसित्ता - बस कर । वसु - वीतराग या साधु । वा - अथवा। अणुवसु-साधु या श्रावक । धम्मं - धर्म को । अहाता - यथार्थ रूप से । जाणित्तु - जानकर भी मोहोदय से । अहेगे - कई एक । कुसीला - कुत्सित शील वाले व्यक्ति । तं - उस धर्म का । आचाइ - पालन नहीं कर सकते ।
मूलार्थ-स्नेह- राग में आसक्त माता - पिता आदि के स्वरूप को जान कर, पूर्वसंयोग माता-पिता के सम्बंध को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर ब्रह्मचर्य में बसकर, साधु अथवा श्रावक; यथार्थ रूप से धर्म को जानकर भी मोहोदय से कुछ कुशील बुरे आचार वाले व्यक्ति उस धर्म का पालन नहीं कर सकते ।