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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
उससे सदा लड़ते-झगड़ते रहे हों, उसे सदा कोसते रहे हों, परन्तु जब वह बोध को प्राप्त होकर साधना के पथ पर चलने का उपक्रम करता है, तब उनका समस्त प्यार-दुलार उमड़ पड़ता है और वे उसे अनेक तरह से संसार में रोकने का प्रयत्न करते हैं।
उस समय प्रिय और अप्रिय सभी परिजन उसे समझाते हैं कि तू हमारे जीवन का आधार है। हमने सदा तुम्हारे जीवन का एवं दुःख-सुख का ध्यान रखा है। तुम्हें योग्य बनाने के लिए सब तरह का प्रयत्न किया है । परन्तु जब हमारी सेवा करने का अवसर उपस्थित हुआ, तब तुम हमें छोड़कर जा रहे हो । क्या यही तुम्हारा धर्म है ? कर्त्तव्य है ? जरा गंभीरता से सोचो - समझो ।
इस तरह के आक्रन्दन भरे शब्द दुर्बल मन वाले साधक को विचलित कर देते हैं। उनके अनुराग के सामने उसका वैराग्य शरद् ऋतु के बादलों की तरह उड़ जाता है। इसलिए महापुरुषों ने ऐसे समय में दृढ़ रहने का उपदेश दिया है। जो व्यक्ति मोह के प्रबल झोंको से भी विचलित नहीं होता, वही संयम में संलग्न रह सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि साधक माता-पिता आदि परिजनों को तिरस्कार करके घर से भाग जाए, बुद्ध की तरह बिना आज्ञा प्राप्त किए छिपकर घर से भाग निकले या उन्हें परेशान करके, दुःख एवं कष्ट देकर आज्ञा प्राप्त करे । इसका तात्पर्य इतना ही है कि वह अपने सद्विचारों पर स्थित रहता हुआ, प्रेम एवं स्नेह से परिजनों को समझाकर, उनकी शंकाओं का निराकरण करके आज्ञा प्राप्त करे। यह ठीक हैं कि यदि वैराग्य की कसौटी के लिए उसे किसी तरह का कष्ट दिया जाए तो वह उसे समभाव पूर्वक सहकर उसमें उत्तीर्ण होने का प्रयत्न करे, परन्तु अपनी तरफ से उन्हें कष्ट देने का प्रयत्न न करे ।
इस तरह त्याग-वैराग्य एवं ज्ञान के द्वारा परिजनों के मोह आवरण को दूर करके अपने पथ को प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे विवेकनिष्ठ साधक ज्ञान एवं त्याग-वैराग्य के द्वारा सदा अभ्युदय की ओर बढ़ते रहते हैं और एक दिन समस्त कर्म बन्धनों से उन्मुक्त हो कर अपने ध्येय को, लक्ष्य को पूरा कर लेते हैं ।
"त्तिबेमि” की व्याख्या पूर्ववत् समझें ।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
केल