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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 1
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• करने वाले के प्रति। परिदेवमाणा-रुदन करते हुए माता-पिता आदि। इय-इस प्रकार। ते-वे। वयंति-कहते हैं, क्या कहते हैं? छंदोवणीया-हे पुत्र! हम सब तेरी इच्छा के अनुसार बर्ताव करने वाले हैं। अज्झोववन्ना-तेरे पर ही हमारा विश्वास है-तेरे में हम आसक्त हैं। अक्कंदकारी-इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए। जणगाजनक-माता-पिता आदि बन्धु जन। रुयन्ति-रुदन करते हैं, फिर इस प्रकार बोलते हैं। अतारिसेमुणी-इस प्रकार से मुनि नहीं हो सकता। ओहंतरे-और न वह संसार समुद्र को तैर सकता-पार कर सकता है। जेण-जिसने। जणगा-माता-पिता आदि को। विप्पजढा-छोड़ दिया है, इस प्रकार के वचनों को सुनकर तत्त्वज्ञ मुनि क्या विचारता है, वह सूत्रकार कहते हैं। तत्थ-उस कष्ट के समय वे-सगे सम्बन्धी वर्ग। संरणं-शरण भूत। नो समेइ-नहीं होता। तु-वितर्क में जानना। नाम-संभावना अर्थ में है। कहं-किस प्रकार से मुमुक्षु जन। तत्थ-उस गृहस्थावास में। रमइ-रमण कर सकता है, अर्थात् नहीं कर सकता। एयं-यह पूर्वोक्त । नाणं-ज्ञान। सया-सदा आत्मा में। समणु-वासिज्जासि-स्थापन करे। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-संयम के लिए उद्यत हुए तत्त्वज्ञ व्यक्ति के प्रति उसके माता-पिता आदि सम्बन्धी जन इस प्रकार कहते हैं-हे पुत्र! तू हमको मत छोड़, हम तेरे अभिप्राय के अनुसार चलने वाले हैं और तेरे में आसक्त हैं। वे आक्रन्दन और रुदन करते हुए कहते हैं कि तू इस प्रकार से मुनि नहीं हो सकता और नाही वह संसार समुद्र को पार कर सकता है, जिसने रोते हुए माता-पिता आदि सम्बन्धी जनों का परित्याग कर दिया है। तब संयम के लिए उद्यत हुआ साधक (व्यक्ति) विचार करता है कि यह स्वजन वर्ग कष्ट के समय शरण भूत नहीं हो सकता। वह तत्त्वज्ञ पुरुष किस प्रकार गृहस्थावास में रह सकता है, अर्थात् कदापि नहीं रह सकता। यह पूर्वोक्त ज्ञान सदा अपनी आत्मा में स्थापन करे, इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी मनुष्य को परिजनों का स्नेह मिलता है, तो कभी उनकी ओर से तिरस्कार भी सहना पड़ता है। परन्तु, प्रायः यह देखा गया है कि जीवन विकास के पथ पर बढ़ने वाले व्यक्ति को उस मार्ग से हटाने के लिए वे सदा तैयार रहते हैं। भले ही, घर में रहते समय