________________
656
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध निष्कर्म बनने वाले मनुष्यों के जीवनविकास का चित्रण किया गया है, गर्भ में उत्पन्न होने के समय से लेकर कर्म क्षय करने के स्वरूप का संक्षेप से वर्णन किया गया है।
सभी संसारी जीव अपने कृत कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं। जिन्होंने मनुष्य गति का आयुष्य बांध रखता है, वे मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं। माता-पिता के रज और वीर्य का संयोग होने पर जीव उसमें उत्पन्न होता है। उस रज-वीर्य का सात दिन में कलल बनता है, दूसरे सात दिन में अबुर्द बनता है। उसके बाद पेशी बनती है, फिर वह सघन होता है, उसके बाद उसके अंगोपांग बनते हैं और फिर गर्भ का समय पूरा होने पर वह जन्म ग्रहण करता है और धीरे-धीरे विकास को प्राप्त होता है। समझदार होने के बाद मोहकर्म के क्षयोपशम से वह स्वयं बोध को प्राप्त होकर या धर्म शास्त्र एवं सन्त पुरुषों के संसर्ग से सद्ज्ञान को पाकर मुनि बन जाता है और तप-संयम में संलग्न होकर कर्मों का क्षय करने लगता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जो मनुष्य योनि को प्राप्त करके संयम में संलग्न होता है, ज्ञान-दर्शन और चारित्र की साधना करता है, वही मनुष्य निष्कर्म बन सकता है।
इस प्रकार संसार के स्वरूप को समझकर जब मनुष्य साधना के पथ पर चलने को तैयार होता है; उस समय उसके परिजन एवं स्नेही उसे क्या कहते हैं, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं__ मूलम्-तं परिक्कमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंतिछंदोवणीया अज्झोववन्ना अक्कंदकारी जणगा रुयंति, अतारिसे मुणी (णय) ओहं तरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रमइ? एयं नाणं सया समणुवासिज्जासित्तिबेमि॥177॥
छाया-तं पराक्रममाणं परिदेवमानाः मा परित्यज। इति ते वदन्ति, छन्दोपनीताः अभ्युपपन्नाः (अध्युपपन्ना वा) आक्रन्दकारिणः जनकाः रुदन्ति-अतादृशोमुनिः नच ओघंतरति जनका येन अपोढाः शरणं तत्र न समेति कथं नु नामासौः (सः) तत्ररमते एतद् ज्ञानं सदा सम्यगनुवासयेः 'व्यवस्थापयेः' इति ब्रवीमि।
पदार्थ-तं-उस-तत्व के जानने वाले। परिक्कमंतं-संयम मार्ग में पराक्रम