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________________ 655 षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 1 ऐसे संयम-निष्ठ साधकों के गुणों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते है - मूलम् - आयाण भो सुस्सूस ! भो धूयवायं पवेयइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूया अभिसंजाया अभिनिव्बुडा अभिसंबुडा अभिसंबुद्धा अभिनिक्कंता अणुपुव्वेण महामुणी ॥ 176 ॥ छाया - आजानीहि भोः शुश्रूषस्व भोः धूतवादं प्रवेदयिष्यामि इह खलु आत्मतया (आत्मता-तया) तेषु तेषु कुलेषु अभिषेकेण अभिसंभूताः अभिसंजाता अभिनिर्वृत्ताः अभिसंबृद्धा अभिनिष्क्रान्ताः अनुपूर्वेण महामुनिः । 'पदार्थ - भो - हे शिष्य ! आयाण - तू अवधारण कर । सुस्सूस -सुनने की इच्छा कर। धूयवायं-धूतवाद को - कर्म धुनने के बाद को। पवेयइस्सामि - प्रवेदन करूंगा। इह - इस संसार में । खलु - वाक्यालंकार में है । अत्तत्ताए - अपनी कर्म परिणति के द्वारा । तेहिंतेहिं - उन उन । कुलेहिं - कुलों में । अभिसेएण - शुक्र शोणित के अभिषेक - अभिसिंचन से । अमिसंभूया - गर्भ में कलल रूप हुआ। अभिसंजायाफिर मांस एवं पेशी रूप बना, और । अभिनिव्वुडा - सांगोपांग - स्नायु, सिर रोमादि क्रम से अभिनिवृत्त हुआ, फिर । अभिसंबुडा - अभिवृद्ध हुआ फिर । अभिसंबुद्धाजागृत हुआ। अभिनिक्कंता-त्याग मार्ग में प्रवर्जित हुआ; वह । अणुपुव्वेण-अनुक्रम से । महामुनी - महामुनि हो जाता है । मूलार्थ - हे शिष्यो ! ध्यानपूर्वक सुनो और समझो, मैं तुम्हें कर्म क्षय करने का उपाय बतलाता हूँ। इस संसार में कतिपय जीव अपने किए हुए कर्मों का फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न कुलों के माता-पिता के रज-वीर्य से गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, जन्म धारण किया, क्रमशः परिपक्व वय के बने, प्रतिबोध पाकर त्यागमार्ग अंगीकार करके अनुक्रम से महामुनि बने । हिन्दी - विवेचन आगम में बताया गया है कि मनुष्य ही सब कर्मों का क्षय करके मुक्ति को पा सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी गति या योनि में स्थित जीव निष्कर्म नहीं बन सकता। मनुष्य योनि में भी सभी मनुष्य निष्कर्म नहीं बनते हैं । प्रस्तुत सूत्र में
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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