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________________ 654 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध कि राजयक्ष्मादि रोगों की निवृत्ति के लिए सावद्य चिकित्सा-जीव हिंसामय औषधोपचार करो, और मांस आदि का भक्षण करो। आतुर प्राणी उत्पन्न हुए गण्ड, कुष्ठ, राजयक्ष्मादि रोगों को जानकर उनकी निवृत्ति के लिए अन्य प्राणियों को परिताप देता है। परन्तु, हे शिष्य! तू यह देख, सम्यग् विचार कर कि हिंसा-प्रधान चिकित्सा से कर्मजन्य रोग उपशान्त नहीं होता। अतः हे शिष्य! तुझे जीव हिंसामय औषध से कदापि उपचार नहीं करना चाहिए। यह सावध औषधोपचार महाभय का कारण है। इसलिए तुझे किसी भी जीव का अतिपात नहीं करना चाहिए। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि मोह कर्म से आवृत अज्ञानी जीव हिंसा आदि दुष्कर्मों से अनेक प्रकार के दुःखों एवं रोगों का संवेदन करते हैं। फिर भी वे विषय-कषाय से निवृत्त नहीं होते। वे उन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए भी आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-कषाय का आश्रय लेते हैं। इस प्रकार वे दुःख परम्परा को और बढ़ाते हैं तथा महादुःख एवं महाभय के गर्त में जा गिरते हैं। विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति सदा भयभीत बना रहता है, क्योंकि वह दूसरे प्राणियों को त्रास देता है, डराता है। इसलिए स्वयं भी दूसरों से डरता रहता है। सिंह जैसा शक्तिशाली जानवर भी-जो हाथी जैसे विशालकाय प्राणी को मार डालता है, सदा भयभीत रहता है। वह जब भी चलता है तब प्रत्येक कदम पर पीछे मुड़कर देखता है। इसका कारण यह है कि वह दूसरे प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करता है, इसलिए वह स्वयं भयग्रस्त रहता है। उसकी इसी दुर्बलता के कारण साहित्यिक क्षेत्र में पीछे मुड़कर देखने के अर्थ में सिंहावलोकन शब्द का निर्माण किया गया है। अस्तु, सिंहावलोकन भय का प्रतीक है और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दूसरों को संत्रस्त करने वाला व्यक्ति स्वयं त्रास एवं भय से पीड़ित रहता है। यह अनेक पाप कर्मों का बन्ध करके अनेक दुःखों एवं रोगों का संवेदन करता है। __ अतः साधक को विषय-कषाय एवं आरम्भ-समारम्भ के दुष्परिणामों को जानकर उससे दूर रहना चाहिए। उसे किसी भी परिस्थिति में आरम्भ का सेवन नहीं करना चाहिए। रोग आदि के उत्पन्न होने पर भी आरम्भजन्य दोषों में प्रवृत्त न होकर समभाव पूर्वक उसे सहन करना चाहिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सदा संयम में संलग्न रहना चाहिए।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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