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________________ 660 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हिन्दी-विवेचन कुछ व्यक्ति श्रुत और चारित्र धर्म का यथार्थ स्वरूप समझकर साधना के पथ पर चलने का प्रयत्न करते हैं। उस समय मोह एवं राग में आसक्त एवं आतुर व्यक्ति उन्हें उस मार्ग से रोकने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, प्रबल वैराग्य के कारण वे पारिवारिक बन्धन से मुक्त होकर संयम-साधना में प्रविष्ट होते हैं। ब्रह्मचर्य को स्वीकार करने वाले मुनि या श्रावक के व्रतों के परिपालक श्रमणोपासक धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर उसका परिपालन करते हैं। परन्तु, कुछ व्यक्ति धर्म के स्वरूप को जानते हुए भी मोहोदय के कारण साधना-पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं। .. ___ इससे स्पष्ट होता है कि श्रमण एवं श्रमणोपासक दोनों मोक्ष मार्ग के साधक हैं। श्रमणोपासक पूर्णतः त्यागी न होने पर भी मोक्ष मार्ग का आराधक है, क्योंकि उसका लक्ष्य एवं ध्येय वही है, जो साधु का है। अतः आत्मविकास का मार्ग दोनों के लिए उपादेय है। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह मोह से ऊपर उठकर समभाव पूर्वक महाव्रत या अणुव्रत रूप धर्म का शुद्ध पालन करे। . ___ 'वसु' और 'अनुवसु' शब्द का वृत्तिकार ने क्रमशः वीतराग एवं सराग अर्थ किया है। इसके अतिरिक्त उक्त शब्दों से श्रमण-साधु एवं श्रमणोपासक-श्रावक अर्थ भी ग्रहण किया गया है। जो व्यक्ति संयम को स्वीकार करके फिर उससे भ्रष्ट हो जाता है, उसकी क्या स्थिति होती है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुञ्छणं विउसिज्जा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं मुहुत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए॥1790 छाया-वस्त्र पतद्ग्रहः कम्बलं पादपुञ्छनकं व्युत्सृज्य अनुपूर्वेण अनाधिसहमानाः परीषहान् दुरधिसहनीयान् कामान् ममायमानस्य इदानीं मुहर्तेन वा अपरिमाणाय भेदः एवं स अन्तरायिकैः कामैः आकेवलिकैः अवतीर्णाः (असम्पूर्णाः) च एतत्।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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