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मोह-जन्य हानि से बचाने के लिए विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न साधकों के अतिरिक्त सर्व-साधारण के लिए इसका अध्ययन करना बन्द कर दिया। इस प्रतिबन्ध के कारण इसका अध्ययन कम हो गया और एक दिन यह स्मृति से ही उतर गया। अस्तु, जो कुछ भी कारण रहा हो, इसके विच्छेद होने से एक बड़ी साहित्यिक क्षति अवश्य हुई, यह तो मानना ही पड़ेगा।
अष्टम अध्ययन
प्रस्तुत विमोक्ष अध्ययन आठ उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में असमान आचार वाले साधु के साथ नहीं रहने का उपदेश दिया गया है और उसे आहार-पानी वस्त्र-पात्र आदि देने एवं उसकी सेवा करने का भी निषेध किया है। द्वितीय उद्देशक में अकल्प्य-जो वस्तु लेने योग्य नहीं है, उसको ग्रहण नहीं करने का उपदेश दिया गया है। तृतीय उद्देशक में बताया गया है कि यदि उस अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण न करने पर कोई गृहस्थ रुष्ट हो जाए तो उसे साध्वाचार समझाना चाहिए। इस पर भी यदि वह साधु को भला-बुरा कहे या कुछ कष्ट दे, तो उसे समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए, परन्तु अकल्पनीय वस्तु किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करनी चाहिए। चतुर्थ उद्देशक में यह बताया है कि यदि साधु की अंग-चेष्टा को देखकर किसी गृहस्थ के मन में कुछ सन्देह उत्पन्न हो गया हो तो साधु उसका अवश्य ही निवारण कर दे। पंचम उद्देशक में एक पात्र एवं तीन वस्त्र धारण करने वाले साधु के लिए कहा गया है कि वह इससे अधिक की अभिलाषा न रखे। छठे और सातवें उद्देशक में क्रमशः एक पात्र और दो एवं एक वस्त्र धारण करने वाले के सम्बन्ध में यही बात कही गई है। अष्टम उद्देशक में गद्य में वर्णित विषय का गाथाओं-पद्यों में वर्णन किया गया है।
नवम अध्ययन
प्रस्तुत अध्ययन का नाम उपधान है। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें एक भी सूत्र नहीं है। गाथाओं-पद्यों में भगवान महावीर की साधना का वर्णन किया गया है।
प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि दीक्षा-ग्रहण करने के बाद भगवान ने इन्द्र