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तप-साधना का अवसर मिल गया है। अतः वस्त्र की चिन्ता न करके साधक उन महापुरुषों के जीवन का चिन्तन करे, जिन्होंने निर्वस्त्र होकर भी समभाव-पूर्वक साधना के द्वारा कर्मों का क्षय करके मुक्ति को प्राप्त कर लिया है। . . ___चौथे उद्देशक में बताया गया है कि कुछ साधु आचार से च्युत होकर भी लोगों को सम्यक् आचार का उपदेश देते हैं। परन्तु कुछ साधक आचार के साथ ज्ञान से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। सम्यग् ज्ञान और दर्शन से भ्रष्ट साधु अपने जीवन का अधःपतन कर लेते हैं। वे अनन्तकाल तक संसार में भटकते रहते हैं। अतः साधक को सदा ज्ञान एवं आचार की साधना में संलग्न रहना चाहिए। _पंचम उद्देशक में बताया गया है कि उपदेष्टा कैसा हो, उसे कब, किसको और कैसे उपदेश देना चाहिए। इसमें बताया गया है कि उपदेष्टा कष्ट-सहिष्णु हो, समस्त प्राणियों की दया एवं रक्षा करने वाला हो, वेदविद्-आगमों का ज्ञाता हो, सबके लिए शरणभूत हो और उसका उपदेश सबके लिए हो और सबका हित करने वाला हो। और उपदेशक को शान्ति, अहिंसा, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव और लाघव इन विषयों पर उपदेश देना चाहिए। .
इस तरह की साधना के द्वारा ही साधक अपनी आत्मा पर लगे हुए कर्मों को दूर कर सकता है। कर्म-रज से मुक्त होने के लिए ज्ञान और आचार (क्रिया) की समन्वित “साधना आवश्यक है। प्रस्तुत उद्देशक में 'वेदवित्' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां 'वेद' का अर्थ है-आत्मा, पदार्थ एवं लोक के यथार्थ एवं सम्यक् स्वरूप का प्रतिपादक आगम। अतः 'वेदवित्' का अर्थ हुआ-श्रुत-आगम-साहित्य या शास्त्रों का ज्ञाता।
सप्तम अध्ययन
प्रस्तुत अध्ययन का नाम महापरिज्ञा है और यह सात उद्देशकों में विभक्त है। वर्तमान में यह अध्ययन उपलब्ध नहीं है। महापरिज्ञा का अर्थ है-विशिष्ट ज्ञान। आचार्य शीलांक लिखते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन में मोह के कारण से होने वाले परीषहों और उपसर्गों का वर्णन है। इसके सम्बन्ध में परम्परा से ऐसी मान्यता चली आ रही है कि इसमें मन्त्र-तन्त्र से बचने का उपदेश दिया गया था। क्योंकि मन्त्र-तन्त्र की साधना से मोह का उदय होना सम्भव है, इसलिए आचार्यों ने साधु-जीवन को