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पुरुष और नपुंसक इनमें से कुछ भी नहीं है। मुक्तात्मा या परमात्मा का यही वर्णन उपनिषद् एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है।
षष्ठ अध्ययन
षष्ठ अध्ययन का नाम 'धुत' है। इसके पांच उद्देशक हैं। धुत का अर्थ है-वस्तु पर लगे हुए मैल को दूर करके उसे साफ-स्वच्छ बना देना। यह द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। मैले-कुचैले वस्त्र को साबुन आदि क्षार पदार्थ लगाकर शुद्ध एवं उज्ज्वल बनाना द्रव्य धुत है और आत्मा पर चिपटे हुए कर्ममल को तप-स्वाध्याय आदि साधना के द्वारा दूर करके आत्मा को शुद्ध, निर्मल, उज्ज्वल, समुज्ज्वल, परमोज्ज्वल बनाना भाव धुत है। प्रस्तुत उद्देशक में भाव-धुत, अर्थात् आत्मा को उज्ज्वल बनाने का उपदेश दिया गया है।
प्रथम उद्देशक में कुछ उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि मोह में आसक्त व्यक्ति कभी भी शान्ति को नहीं पा सकता। जैसे तालाब में निवसित कछुआ शैवाल से आच्छादित तालाब के बाहर क्या-कुछ है और बाहर जाने का मार्ग किस ओर है, यह नहीं जान सकता। वृक्ष भी दुःख एवं आपत्तियों से अपने बचाव करने के लिए अन्यत्र नहीं जा सकता है। उसी तरह मोह में आसक्त व्यक्ति सत्य-मार्ग को नहीं देख सकता और न उसे पा सकता है, जिससे उस पथ पर चल कर शान्त-प्रशान्त स्थान पर पहुंच सके। वह संसार में रहकर दुःखों की चक्की में पिसता रहता है। अतः साधक को मोह एवं संसार की आसक्ति से सदा दूर रहना चाहिए।
द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि कुछ साधक परीषहों से घबरा कर साधुत्व का परित्याग कर देते हैं। वे वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपुंछनक रजोहरण आदि संयम-साधना के उपकरणों का त्याग करके गृहस्थ बन जाते हैं। इससे वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि साधु उक्त वस्त्र आदि उपकरणों को रखते थे। आगे बताया है कि कुछ साधक दृढ़ता के साथ संयम का पालन करके मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
तृतीय उद्देशक में यह बताया है कि वस्त्र का त्याग करने वाला मुनि इस बात की चिन्ता न करे कि मेरा वस्त्र फट गया है, अतः सूई-धागा लाकर इसे सीना है। परन्तु वह इस बात का अनुभव करे कि मैं हलका बन गया हूं और मुझे सहज ही