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________________ हो सकता है। ज्ञानी पुरुषों ने उसे मुक्ति से दूर कहा है। द्वितीय उद्देशक में कहा गया है कि मुनि वही है, जो लोक में मध्य में रहकर भी हिंसाजीवी नहीं है। उसने यह जान लिया है कि प्रत्येक जीव सुख चाहता है, जीवन चाहता है, मरण सबको अप्रिय है। अतः वह किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता। वह हिंसा के पाप से सदा दूर रहता है। तृतीय उद्देशक में अपरिग्रह की चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि साधक को अपनी कामासक्त आत्मा से ही युद्ध करना चाहिए; क्योंकि आत्म-विजय ही सच्ची विजय है। अतः साधक के लिए बाह्य विजय निष्प्रयोजन है। वस्तुतः “यह आर्य युद्ध ही सच्चा युद्ध है और यह युद्ध अति दुर्लभ एवं कठिन है।" बाह्य युद्ध तो अनार्य युद्ध है। अतः साधक को अनासक्त भाव से विकारों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। चतुर्थ उद्देशक में यह बताया है कि जो मुनि वय एवं ज्ञान से अपरिपक्व है, परीषहों को सहने में अक्षम है, उसे एकाकी विचरण नहीं करना चाहिए। ___ पंचम उद्देशक में कहा गया है कि सदा ‘संशयशील रहने वाले साधक को समाधि-लाभ नहीं होता। उसे पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान करके हिंसादि दोषों से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि पर-प्राणी की हिंसा अपनी स्वयं की हिंसा है। अतः यह कहा गया है कि "जिसे तू हन्तव्य-मारने योग्य जानता है, वही तू है।" क्योंकि उसे मारने के पूर्व तू अपने आत्म-गुणों का नाश करता है, अपनी आत्मा का वध कर रहा है। अतः साधक को चाहिए कि वह हिंसा-अहिंसा के यथार्थ स्वरूप को समझ कर हिंसा का सर्वथा परित्याग करे। छठे उद्देशक में कहा गया है कि कुछ लोग संयम-रत हैं, किन्तु आज्ञा-आराधक नहीं हैं। कुछ आज्ञा के आराधक हैं, किन्तु संयम-रत नहीं हैं। कुछ न आज्ञा-आराधक हैं और न संयम-रत ही हैं। कुछ लोग आज्ञा-आराधक भी हैं और संयम-रत भी हैं। परन्तु वस्तुतः बुद्धिमान साधक वही है, जो आज्ञा के अनुरूप आचरण करता है और वही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। मुक्ति या मुक्त जीव के स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया गया है कि “वह दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, परिमण्डल, कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, शुक्ल, सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर, कर्कश, मृदु, गुरु-लघु, शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, काय युक्त, रुह-पुनर्जन्म, संग, स्त्री,
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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