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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
यथार्थ स्वरूप को देखते हैं, इसलिए उनके उपदेश में कहीं भी विपरीतता नहीं आ पाती। उनमें राग-द्वेष का अभाव होने से उनका उपदेश प्राणिजगत के लिए हितप्रद एवं कल्याणकारी होता है।
सर्वज्ञ पुरुष राग-द्वेष के विजेता होते हैं। अतः उनके उपदेश में भेद-भाव नहीं होता। त्यागी-भिक्षु वर्ग एवं भोगी-गृहस्थ वर्ग हो, धनी या निर्धन हो, छूत या अछूत हो, स्त्री या पुरुष हो, कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, सबको उपदेश सुनने का अधिकार है। जैन धर्म में जाति, लिंग, देश, रंग आदि को महत्त्व नहीं दिया गया है, महत्त्व दिया गया है गुणों को, आचरण को। प्रत्येक वर्ग, जाति एवं देश का व्यक्ति अपने आचरण को शुद्ध बनाकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। अतः धर्मनिष्ठा एवं जिज्ञासा की भावना लेकर सुनने वाला व्यक्ति-भले ही वह किसी भी जाति, रंग एवं देश का क्यों न हो, अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। इस प्रकार श्रद्धानिष्ठ व्यक्ति वीतराग प्रभु का प्रवचन सुनकर अपने जीवन को आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त करके तप, संयम एवं ज्ञान साधना में लगा देते हैं। अतः वे महापुरुष दंड से सर्वथा निवृत्त होकर श्रुतसम्पन्न बनकर त्यागपथ पर गतिशील होते हैं।
परन्तु, सभी श्रोताओं का जीवन एक समान नहीं होता है। कुछ श्रद्धानिष्ठ प्राणी भगवान का प्रवचन सुनकर तप-संयम के द्वारा कर्म-बन्धन तोड़ने का प्रयत्न करते हैं और प्रतिक्षण निष्कर्म बनने की साधना में संलग्न रहते हैं। किन्तु, कुछ व्यक्ति मोह कर्म से इतने आवृत होते हैं कि त्याग-वैराग्य के पथ पर भली-भांति चल नहीं सकते। वे कायर पुरुष विषय-भोग एवं पदार्थों की आसक्ति को त्याग नहीं. सकते। जैसे शैवाल से आच्छादित सरोवर में स्थित कछुआ उक्त सरोवर से बाहर निकलने का मार्ग जल्दी नहीं पा सकता। उसी प्रकार मोह कर्म से आवृत व्यक्ति संसार-सागर से ऊपर नहीं उठ सकता, तप-त्याग की ओर पग नहीं बढ़ा सकता। तप-संयम की साधना के लिए मोह कर्म का क्षय या क्षयोपशम करना आवश्यक है। __इस प्रकार विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति कर्मबन्धन एवं कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते, क्योंकि विषय-वासना एवं आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहने के कारण वे पाप कर्म का बन्ध करते हैं और परिणामस्वरूप दुःख के प्रवाह में प्रवहमान रहते हैं। वे जन्म-मरण के दुःख एवं व्याधियों से संतप्त रहते हैं। यों तो .