SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 736
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 1 647 वाले जीव भी अनेक ऊंच-नीच कुलों में जन्म धारण कर नाना प्रकार के रूपादि विषयों में आसक्त हुए नाना विध कर्मों के कारण नाना प्रकार की दुःख वेदनाओं को भोगते हुए अनेक प्रकार के दीन वचन कहते हैं। परन्तु, वे कर्म फल को भोगे बिना कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो सकते और संसार से छूटने के उपाय का भी अन्वेषण नहीं करते। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे शिष्यो! तुम देखो कि वे ऊंच-नीच कुलों में उत्पन्न होने वाले जीव निम्नलिखित रोगों द्वारा असह्य वेदना को प्राप्त होते हैं। यथा-1-गंडमाला, 2-कुष्ठ, 3-राजयक्ष्मा, 4-अपस्मार-मिरगी, 5.-काणत्व, 6-जड़ता-शून्यता, 7-कुणित्व-लुंजपन, 8-कुब्जता-कुबड़ापन, 9-मूकता-गूंगापन, 10-उदर रोग-जलोदरादि, 11-शोथ-सूजन, 12-भस्मरोग, 13-कम्पवात, 14-गर्भ दोष से उत्पन्न हुआ रोग, जिससे प्राणी बिना लाठी के चलने में असमर्थ होता है, 15-श्लीपद, 16-मधुमेह। सोलह प्रकार के इन रोगों का अनुक्रम से कथन किया है। जब शूलादि का स्पर्श होता है, तब बुद्धि असमंजस, अर्थात् अस्त-व्यस्त हो जाती है। अतः देवों के उपपात और च्यवन को तथा उक्त प्रकार के रोगों द्वारा होने वाली मनुष्यों की मृत्यु को देख कर एवं कर्मों के विपाक को लक्ष्य में रख कर साधक को संयम-साधना द्वारा जन्म-मरण से छूटने का प्रयत्न करना चाहिए। हिन्दी-विवेचन ____ ज्ञान आत्मा का गुण है। प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान की सत्ता स्थित है। परन्तु ज्ञानावरण कर्म के कारण बहुत-सी आत्माओं का ज्ञान प्रच्छन्न रहता है। ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षय या क्षयोपशम होता है, उतना ही ज्ञान आत्मा में प्रकट होता रहता है। जब आत्मा पूर्ण रूप से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर डालती है, तब उसे पूर्ण ज्ञान-केवल ज्ञान प्राप्त होता है। फिर उससे संसार का कोई भी पदार्थ प्रच्छन्न नहीं रहता। वह महापुरुष अपने ज्ञान से संसार परिभ्रमण के कारण एवं उससे मुक्त होने के साधन को जान लेता है। अतः ऐसा महापुरुष ही धर्म का यथार्थ उपदेश दे सकता है। इसी कारण जैन धर्म में तीर्थंकर एवं सर्वज्ञ भगवान को उपदेष्टा माना गया है। छद्मस्थ साधकों का उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित प्रवचन या आगम के आधार पर होता है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। क्योंकि सर्वज्ञ सभी पदार्थों के
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy