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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध शरीर के अवयवों का शून्य हो जाना । कुणियं - एक पाद ह्रस्व और एक दीर्घ, अथवा एक हाथ छोटा और एक बड़ा । तहा - तथा । खुज्जियं - कुब्ज रोग । च- पुनः या समुच्चय अर्थ में जानना । उदरिं- उदर के रोग, जलोदरादि । पास- हे शिष्य तू देख ! मूयं - मूकरोग गूंगापन । च- समुच्चय अर्थ में । सूणीयं - शोथरोग - सूजन । च - समुच्चय अर्थ में । गिलासणिं - भस्मरोग । वेवई - कम्परोग । च- फिर । पीढसप्पिकाष्ठ की पाटियों को कक्ष - कांख में रखकर उनके सहारे चलने वाला रोगी । सिलिवयं-श्लीपद रोग। महुमेहिणं - मधुमेह - प्रमेह रोग । एए-ये। अणुपुव्वसोअनुक्रम से । सोलस - सोलह रोग । अक्खाया- कथन किए हैं । णं - वाक्यालंकार अर्थ में है। अह-अथ तदनन्तर । आयंका - शूलादि आतंक - भयंकर रोग । फुसंतिस्पर्श करते हैं । य-और इनके । फासा - स्पर्श । असमंजसा - असमंजस हैं । तेसिं- उन भारी कर्मा जीवों की, रोगों के स्पर्श से । मरणं - मृत्यु को । संपेहाए - विचार कर । च-और। उववायं-देवों के उपपात और । चवणं - च्यवन को । नच्चा - जानकर । च-और। परियागं-कर्मों के परिपाक को । संपेहाए- पर्यालोचन करके । 1 646 मूलार्थ - इस मनुष्य-लोक में सद्बोध को प्राप्त हुआ पुरुष अन्य मनुष्यों के प्रति धर्म का कथन करता है अथवा वह श्रुतकेवली जिसके शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में कथन की गई सर्व प्रकार से एकेन्द्रियादि जातियाँ सुप्रतिलेखित हैं या तीर्थंकर, केवली तथा अतिशय ज्ञानी पुरुष धर्म का उपदेश करते हैं । - प्रश्न - वे किस व्यक्ति को धर्म कहते हैं ? उत्तर—जो धर्म सुनने के लिए उपस्थित है, जिसने मन-वचन और काय के दण्ड को त्याग दिया है, समाधि को प्राप्त है, बुद्धिमान है, वह उसे मुक्ति मार्ग का उपदेश करता है। इसी प्रकार कई एक वीर पुरुष धर्म को सुनकर संयम मार्ग में पराक्रम करते हैं । हे शिष्य ! तू देख ! आत्मा का हित न चाहने वाले कई पुरुष धर्म से गिरते । हे शिष्यो ! मैं कहता हूं, जैसे वृक्ष के पत्तों से आच्छादित हद - सरोवर में निमग्न हुआ कछुआ वहां से निकलने का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार गृहवास में आसक्त जीव वहां से निकलने में समर्थ नहीं हो सकता, मोहावरण के कारण वे जीव धर्मपथ को नहीं देख सकते। जैसे वृक्ष शीतोष्णादि. कष्टों को सहन करता हुआ भी अपने स्थान को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार भारी कर्म
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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