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षष्ठ अध्ययन, उद्देशक 1 जो। समुट्ठियाणं-धर्म ग्रहण करने के लिए उत्थित हैं। निक्खित्त दंडाणं-मन-वचन
और काय दंड को जिन्होंने छोड़ दिया है। समाहियाणं-जो तप-संयमादि में समाहित-उद्यत हैं। पन्नाणमंताणं-जो प्रज्ञान वाले हैं। इह-इस मनुष्य लोक में। मुत्तिमग्गं-मुक्तिमार्ग का प्रकाश करते हैं। एवं-इस प्रकार। एगे-तीर्थंकरादि धर्म कहते हैं, फिर । महावीरा-वीर पुरुष तीर्थंकर भाषित धर्म में। विप्परिक्कमंतिपराक्रम करते हैं, तथा। एगे-कई एक। अवसीयमाणे-अवसीदित हुए-मोह कर्म के प्राबल्य से जो संयम से गिरते हैं, उनको। पासह-हे शिष्य! तू देख। अणत्तपन्नेअनात्मप्रज्ञ-जिनकी आत्मा के लिए हित बुद्धि नहीं है। से बेमि-हे शिष्य! वह जो धर्म से गिरता है, उसके विषय में फिर मैं कहता हूँ। से-अब। जहावि-जैसे कियहां अपि शब्द च शब्द के अर्थ में आया है। कुम्मे-कछुआ। हरए-ह्रद में-सरोवर मे। विणिविठ्ठचित्ते-अत्यन्त एकाग्र चित्त होकर ठहरता है, तथा जो सरोवर। पच्छन्नपलासे-वृक्षों के पत्र गिरने से आच्छादित्त हो रहा है। उम्मग्गं-निकलने का मार्ग। से-वह-कछुआ। नो लहइ-प्राप्त नहीं कर सकता, इसी प्रकार संसारी जीव संसार सरोवर में पड़ा हुआ उससे बाहर निकलने का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकता, जो संसारी जीव। भंजगा इव-वृक्षों की तरह। संनिवेसं-स्व स्थान को। नो चयंति-नहीं छोड़ते (वे ही दुःखादि को सहते रहते हैं)। एवं-इसी प्रकार। अवि-संभावना अर्थ में है। एगे-कई एक भारी कर्मी जीव। अणेगरूवेहि-नाना प्रकार के ऊंच-नीच । कुलेहि-कुलों में। जाया-उत्पन्न होते हैं। स्वेहिं सत्ता-रूपादि विषयों में आसक्त हुए। कलुणं-करुणा युक्त-दीन वचन। थणंति-बोलते हैं। नियाणओ-दुःख के कारण कर्मों के बिना भोगे। ते-वे-विलाप करते हुए। मोक्खं-मोक्ष को। न लभंति-प्राप्त नहीं होते, अर्थात् बिना भोगे दुःखों से छुटकारा नहीं पाते। अथवा दुःख से छुटकारा कराने वाले संयम को धारण नहीं करते। अह-अथ शब्द वाक्योपन्यास में है। पास-हे शिष्य! तू देख। तेहिं कुलेहि-उन कुलों में। आयत्ताए-स्वकर्म भोगने के लिए। जाया-उत्पन्न हुए हैं। अशुभ कर्म के उदय से जीव, जिस-जिस दुःखमयी अवस्था को प्राप्त होते हैं, अब उसका वर्णन करते हैं। गंडी-गण्डमाला रोग। अहवा-अथवा। कोढी-कुष्ठ रोग। रायंसी-राजक्ष्मा-क्षयरोग। अवमारियं-अपस्मार-मिरगी रोग। काणियं-एक चक्षु वाला काणत्वरोग। च-पुनः । एव-अवधारण अर्थ में है। झिमियं-जाड्यता