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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सब प्रकार की बाधा-पीड़ाओं एवं कर्म तथा कर्मजन्य उपाधि से रहित हो जाता है; निरावरण ज्ञान एवं अनन्त आत्मा सुख में रमण करता हुआ सदा-सर्वदा अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। यह अक्षय सुख वाला है, समस्त कर्मों से रहित है, अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं शक्ति से संपन्न है।
उसके स्वरूप का वर्णन करने की शक्ति किसी शब्द में नहीं है। उसके वर्णन करने में समस्त स्वर अपनी सामर्थ्य खो देते हैं, क्योंकि शब्दों के द्वारा उसी वस्तु का वर्णन किया जा सकता है, जिसका कोई रूप हो, रंग हो या उसमें अन्य भौतिक आकार-प्रकार हो। परन्तु शुद्ध आत्मा इन सब गुणों से रहित है। उसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि का सर्वथा अभाव है। वहां आत्मा के साथ किसी पौद्गिलक पदार्थ का संबन्ध नहीं है। अतः शब्दों के द्वारा मोक्ष के स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। वेदों में 'नेति नेति' शब्द द्वारा इसी बात को व्यक्त किया गया है कि परमात्मा के स्वरूप का शब्दों से विवेचन नहीं किया जा सकता। आत्मा-परमात्मा को मानने वाले प्रायः सभी भारतीय दर्शन इस बात में एकमत हैं। __ शब्द की अपेक्षा तर्क एवं बुद्धि का स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है और यह उससे भी सूक्ष्म है। इस कारण इनकी पहुंच भी शब्द से अधिक विस्तृत क्षेत्र में है। कवि एवं विचारक तर्क एवं बुद्धि की कल्पना से बहुत ऊंची उड़ानें भरने में सफल होते हैं। परन्तु मुक्त आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने में तर्क एवं बुद्धि भी असमर्थ है। क्योंकि मनन-चिन्तन एवं तर्क-वितर्क आदि पदार्थों के आधार पर होता है और मुक्ति समस्त मानसिक विकल्पों से रहित है। अतः वहां तर्क एवं बुद्धि की भी पहुंच नहीं है।
वैदिक ग्रन्थों में भी ब्रह्म या परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है-जो अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, तथा रस हीन, नित्य और अगन्ध युक्त है; जो अनादि-अनन्त, यह तत्त्व से भी परे और ध्रुव (निश्चल) है, उस तत्त्व को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है। वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षु श्रोत्रादि रहित, अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म और अव्यय है जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है, उसे विवेकी पुरुष देखते 1. अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं, तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनाद्यनन्ते महतः परं ध्रुवं, निचाय्य तन्मृत्ममुखात्प्रमुच्यते॥
-कठोपनिषद्; 1, 3, 15