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पंचम अध्ययन, उद्देशक 6
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है। तात्पर्य यह कि अपद का पद नहीं होता, अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं, जिससे उसका निरूपण किया जा सके।
मूलार्थ-वह जन्म-मरण के मार्ग को अतिक्रम करने वाला है, मोक्ष में रत है। मोक्ष या मोक्ष के सुख का शब्दों के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, तर्क उसमें काम नहीं करता, मति का वहां प्रयोजन नहीं, अर्थात् मति के द्वारा वहां विकल्प उत्पन्न नहीं किया जा सकता, ऐसा केवल शुद्ध चैतन्य और ज्ञान, दर्शन तथा अक्षय सुख एवं अनन्त शक्तिमय सिद्ध भगवान है! जो कि अप्रतिष्ठान नाम मोक्ष का ज्ञाता और परमपद का अध्यासी है तथा संस्थान की अपेक्षा से वह-सिद्ध भगवान न दीर्घ है-न ह्रस्व; न वृत्ताकार है, न त्रिकोण, एवं न चतुष्कोण है, न परिमंडल के आकार-चूड़ी के आकार वाला। वर्ण की अपेक्षा से न कृष्ण है, न नीला; लाल है न पीला और न ही श्वेत है, गन्ध की अपेक्षा से न सुगन्ध युक्त है
और न ही दुर्गन्धवाला है, रस की अपेक्षा से न तिक्त है न कटुक, न कषाय न खट्टा और न मधुर है एवं स्पर्श की अपेक्षा से वह न तो कर्कश है न कोमल, तथा
न लघु है न गुरुं, न उष्ण है न शीत और न स्निग्ध है न रुक्ष, तथा न वह काय .. वाला या लेश्या वाला है, इसी तरह न तो उसका कर्म रूप बीज है और न उसको किसी का संग है, वह न तो स्त्री है और न ही पुरुष और न ही नपुंसक है, वह सामान्य और विशेष ज्ञान वाला, अवस्था विशेष से रहित, अनुपम केवल शुद्ध चैतन्य स्वरूप अरूपी सत्ता वाला, अक्षय सुख की राशि अनन्त शक्तियों का भंडार और ज्ञान दर्शन के उपयोग से युक्त हुआ विराजमान है। हिन्दी-विवेचन
पूर्व सूत्र में बताया गया है कि आस्रव का निरोध करके एवं निर्जरा के द्वारा चार घातिक कर्मों का क्षय करके आत्मा सर्वज्ञ बनता है और सर्वज्ञ अवस्था में आयु कर्म के क्षय के साथ शेष तीन-वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का सर्वथा क्षय करके आत्मा निर्वाण पद को प्राप्त करता है। प्रस्तुत सूत्र में इसी मोक्ष एवं मुक्तात्मा के विषय का विवेचन किया गया है।
मोक्ष उस स्थिति का नाम है, जिसमें साधक समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर देता है। अब उसके लिए कुछ भी करना अवशेष नहीं रह जाता है। फिर आत्मा