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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अन्यथा परिज्ञः, संज्ञः, उपमा न विद्यते अरूपिणी सत्ता अपदस्य पदं नास्ति। ___ पदार्थ-जाई-जन्म। मरणस्स-मरण के। वट्टमग्गं-मार्ग के कारण कर्मों का। अच्चेइ-अतिक्रम करता है। विक्खायरए-मोक्ष में रत है। सव्वे-सर्व। सरा-स्वर। नियटॅति-वहां पर नहीं है-अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति नहीं है, तथा वाच्य वाचक सम्बन्ध भी नहीं है। जत्थ-जहां पर। तक्का-तर्क। न विज्जइ-विद्यमान नहीं है। तत्थ-वहां पर। मई-मति-मतिज्ञान। न गहियाग्राहक नहीं है, अर्थात् मति का वहां पर कोई भी प्रयोजन नहीं है। ओए-केवल कर्म कलंक से रहित सिद्ध भगवान हैं। अपइट्ठाणस्स-औदारिक शरीर वा कर्म अप्रतिष्ठान-मोक्ष का जो। खेयन्ने-खेदज्ञ-निपुण वा क्षेत्रज्ञ है। से-वह परम पद का अध्यासी, सिद्ध आत्मा ज्ञानदर्शनोपयुक्त है और संस्थान की अपेक्षा से न दीर्घ है। न हस्से-न ह्रस्व है। न वट्टे-न वृत्त-वर्तुलाकार है। न तंसे-न त्रिकोण है। न चउरंसे-न चतुष्कोण है-। न परिमंडले-न परिमंडल संस्थान वाला है, तथा वर्ण की अपेक्षा। न किण्हे-न कृष्ण वर्ण वाला है। न नीले-न नील वर्ण वाला है। न लोहिए-न लोहित है। न हालिद्दे-न पीत है-पीले वर्ण वाला है। न सुक्किल्ले-न शुक्ल-श्वेत है, गन्ध की अपेक्षा। न सुरभिगंधे-न सुगन्ध वाला है। न दुरभिगंधे-न दुर्गन्ध वाला है-रस की अपेक्षा। न तित्ते-न तिक्त है। न कडुए-न कटुक है। न कसाए-न कषाय रस वाला है। न अंबिले-न खट्टा है। न महुरे-न मधुर है, स्पर्श की अपेक्षा। न कक्खड़े-न कर्कश स्पर्श वाला है। न मउए-न मृदु स्पर्श-कोमल स्पर्श वाला है। न गरुए-न गुरु-भारी है। न लहुए-न लघु-हल्का है। न उण्हे-न उष्ण है। न सीए-न . शीत है। न निद्धे-न स्निग्ध है। न लुक्खे-न रुक्ष है। न काऊ-न काय वा लेश्या से युक्त है। न रुहे-कर्म बीज के अभाव से जिसका पुनर्जन्म नहीं होता। न संगे-अमूर्त होने से जिसको किसी का संग नहीं। न इत्थी-जो न स्त्री है। न पुरिसे-न पुरुष है। न अन्नहा-न नपुंसक है। परिन्ने-परिज्ञ है सर्वात्म प्रदेशों का ज्ञाता है। सन्ने-संज्ञ है-अर्थात् ज्ञान दर्शन के उपयोग से युक्त है-सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी है। उवमा न बिज्जए-उसके-सिद्धात्मा के सुख की किसी पदार्थ से उपमा नहीं दी जा सकती। अरूवी सत्ता-वह अरूपी सत्ता है। अपयस्स-उसकी कोई भी अवस्था विशेष नहीं है, अतः। पयं-उसकी नियत्त अवस्था। नत्थि-नहीं